द्वितीय स्कन्धः ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। BHAGWAT PURAN.
।। श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ।। ।। श्रीमद्भागवत महापुराणम् ।।
।। द्वितीय स्कन्धः ।। ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।।
।। द्वितीय स्कन्धः ।। ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।।
श्रीशुक उवाच
एवं पुरा धारणयात्मयोनिर्नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात्
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिर्यथाप्ययात्प्राग्व्यवसायबुद्धिः 1
श्रीशुकदेवजी कहते हैं----- सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान् से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकाल में विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्यत्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलय के पहले था ॥1॥
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः
परिभ्रमंस्तत्र न विन्दतेऽर्थान्मायामये वासनया शयानः 2
वेदों की वर्णनशैली ही इस प्रकार की है कि लोगों की बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामों के फेर में फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासना में स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किन्तु उन मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती ॥2॥
अतः कविर्नामसु यावदर्थः स्यादप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः 3
इसलिये विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थों से उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धि को उनकी निस्सारता के निश्चय से परिपूर्ण रखे और एक क्षण के लिये भी असावधान न हो। यदि संसार के पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रम के यों ही मिल जायं, तब उनके उपार्जन का परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिए कोई प्रयत्न न करे ॥3॥
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैर्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम्
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः 4
जब जमीन पर सोने से काम चल सकता है तब पलँग के लिये प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपने को भगवान् की कृपा से स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियों की क्या आवश्यकता। जब अंजलि से काम चल सकता है तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता ॥4॥
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन्
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्
कस्माद्भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् 5
पहनने को क्या रास्तों में चिथड़े नहीं हैं? रहने के लिए क्या पहाड़ो की गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं? अरे भाई ! सब न सही, क्या भगवान् भी अपने शरणगतों की रक्षा नहीं करते? ऐसी स्थिति में बुद्धिमान लोग भी धन के नशे में चूर घमंडी धनियों की चापलूसी क्यों करते हैं ? ॥5॥
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्तः
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत संसारहेतूपरमश्च यत्र 6
इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वतः सिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्तभगवान् हैं, बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ निश्चय करके उन्हीं का भजन करे; क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले अज्ञान का नाश हो जाता है ॥6॥
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्तामृते पशूनसतीं नाम कुर्यात्
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां स्वकर्मजान्परितापाञ्जुषाणम् 7
पशुओं की बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है जो लोगों की इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान् का मंगलमय चिंतन नहीं करेगा, इन असत विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटकने देगा ? ॥7॥
केचित्स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम्
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख गदाधरं धारणया स्मरन्ति 8
कोई-कोई साधक अपने शरीर के भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान् के प्रदेशमात्र स्वरुप की धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान् की चार भुजाओं में शंख,चक्र,गदा और पद्य हैं ॥8॥
रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम्
लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं स्फुरन्महारत्नकिरीटकुण्डलम् 9
उनके मुख पर प्रसन्नता झलक रही है। कमल के समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्ब के पुष्प की केसर के समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ॥9॥
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम्
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्नकन्धरमम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् 10
उनके चरणकमल योगेश्वरों के खिले हुए हृदयकमल की कर्णिकापर विराजित हैं। उनके हृदयपर श्रीवत्स का चिंह्न --- एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न कुम्हलानेवाले वनमाला से घिरा हुआ है ॥10॥
विभूषितं मेखलयाङ्गुलीयकैर्महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैर्विरोचमानाननहासपेशलम् 11
वे कमर में करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणों में नुपुर और हाथों में कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालों की लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराले और नीली हैं। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिल रहा है ॥11॥
अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम्
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं यावन्मनो धारणयावतिष्ठते 12
लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवन से शोभायमान भौंहों के द्वारा वे भक्तजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जबतक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तबतक बार-बार इन चिन्तनस्वरुप भगवान् को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये ॥12॥
एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्पादादि यावद्धसितं गदाभृतः
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा 13
भगवान् के चरण-कमलों से लेकर उनके मुस्कानयुक्त मुखकमलपर्यन्त समस्त अंगों की एक-एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंग का ध्यान करना चाहिये ॥13॥
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः
तावत्स्थवीयः पुरुषस्य रूपं क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत 14
ये विश्वेश्वर भगवान् दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण --- सब कुछ इन्हीं का स्वरुप है। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय तबतक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान् के उपर्युक्त स्थूलरूप का ही चिंतन करना चाहिये॥14॥
स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिर्यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम्
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्प्राणान्नियच्छेन्मनसा जितासुः 15
परीक्षित ! जब योगी पुरुष इस मनुष्यलोक को छोड़ना चाहे तब देश और काल में मन को न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे ॥15॥
मनः स्वबुद्ध्यामलया नियम्य क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत्तमात्मनि
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् 16
तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियमित करके मन साथ बुद्धि को क्षेत्र में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ॥16॥
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च न वै विकारो न महान्प्रधानम् 17
इस अवस्था में सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण की तो बात ही क्या है। अहंकार,महत्तत्त्व और प्रकृति का भी वहाँ अस्तित्व नहीं हैं, उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? ॥17॥
परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे 18
योगिलोग 'यह नहीं, यह नहीं'--- इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थों में आत्मबुद्धि का त्याग करके हृदय के द्वारा पद-पद पर भगवान् के जिस परम पूज्य स्वरुप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहे हैं, वही भगवान् विष्णु का परम पद है--- इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति है ॥18॥
इत्थं मुनिस्तूपरमेद्व्यवस्थितो विज्ञानदृग्वीर्यसुरन्धिताशयः
स्वपार्ष्णिनापीड्य गुदं ततोऽनिलं स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः 19
ज्ञानदृष्टि बल से जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबराहट के प्राणवायु को षटचक्रभेदन की रीती से ऊपर ले जाय ॥19॥
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्मादुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत 20
मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मनिपुरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँ से उदानवायु के द्वारा वक्षःस्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में ( विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में ) चढ़ा दे ॥20॥
तस्माद्भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिर्निर्भिद्य मूर्धन्विसृजेत्परं गतः 21
तदन्तर दो आँखे, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख--- इस सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को भौंहों के बीच आज्ञाचक्र में ली जाय। यदि इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर-इन्द्रियदि को छोड़ दे ॥21॥
यदि प्रयास्यन्नृप पारमेष्ठ्यं वैहायसानामुत यद्विहारम्
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च 22
परीक्षित ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोक में जाऊं, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड के किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥22॥
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तर्बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम्
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् 23
योगियों का शरीर वायु की भांति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञान का सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥23॥
वैश्वानरं याति विहायसा गतः सुषुम्णया ब्रह्मपथेन शोचिषा
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् 24
परीक्षित ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णा के द्वारा जब ब्रह्मलोक के लिए प्रस्थान करता हैं, तब पहले वह आकाशमार्ग से अग्निलोक में जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मॉल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँ से ऊपर भगवान् श्रीहरि के शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ॥24॥
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोरणीयसा विरजेनात्मनैकः
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति कल्पायुषो यद्विबुधा रमन्ते 25
भगवान् विष्णु का यह शिशुमार चक्र विश्व ब्रह्माण्ड के भ्रमण का केंद्र हैं। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से वह ही महर्लोक में जाता हैं। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओं के द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ॥25॥
अथो अनन्तस्य मुखानलेन दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम्
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं यद्द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् 26
फिर जब प्रलय का समय आता है, तब नीचे के लोकों को शेष के मुख से निकली हुई आगा के द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोक चला जाता है, जिस ब्रह्मलोक में बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानों पर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोक की आयु ब्रह्माकी आयु के समान ही दो परार्द्ध की है ॥26॥
न यत्र शोको न जरा न मृत्युर्नार्तिर्न चोद्वेग ऋते कुतश्चित्
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदंविदां दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् 27
वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकार का उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बात का। वह यही कि इस परमपद को न जाननेवाले लोगों के जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटों को देखकर दयावश वहाँ के लोगों के मन में बड़ी व्यथा होती है ॥27॥
ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयस्तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन्
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् 28
सत्यलोक में पहुँचने के पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणों का भेदन करता है। पृथ्वीरूप से जल को और जलरूप से अग्निमय आवरणों को प्राप्त होकर वह ज्योतिरूप से वायुरूप आवरण में आ जाता है और वहाँ से समयपर ब्रह्म की अनन्तता का बोध करानेवाले आकाशरूप आवरण को प्राप्त करता है ॥28॥
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी 29
इस प्रकार स्थूल आवरणों को पार करते समय उसकी इन्द्रियां भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठान में लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रा में, रसना रसतन्मात्रा में, नेत्र रूपतन्मात्रा में, त्वचा स्पर्शतन्मात्रा में, श्रोत शब्दतन्मात्रा में और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाशक्ति में मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरुप को प्राप्त हो जाती हैं ॥29॥
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं मनोमयं देवमयं विकार्यम्
संसाद्य गत्या सह तेन याति विज्ञानतत्त्वं गुणसन्निरोधम् 30
इस प्रकार योगी पंचभूतों के स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतों को तामस अहंकार में, इन्द्रियों को राजस अहंकार में तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को सात्त्विक अहंकार में लीन कर देता है। इसके बाद अहंकार के सहित लयरूप गति के द्वारा महत्तत्त्व में प्रवेश करके अंत में समस्त गुणों के लयस्थान प्रकृतिरूप आवरण में जा मिलता है ॥30॥
तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तमानन्दमानन्दमयोऽवसाने
एतां गतिं भागवतीं गतो यः स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग 31
परीक्षित ! महाप्रलय के समय प्रकृतिरूप आवरण का भी लय जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूप से आनन्दस्वरूप से शान्त परमत्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गति की प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता ॥31॥
एते सृती ते नृप वेदगीते त्वयाभिपृष्टे च सनातने च
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट आराधितो भगवान्वासुदेवः 32
परीक्षित ! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रम्मुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजी ने भगवान् वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तर में इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रह्माजी से कही थी ॥32॥
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् 33
संसारचक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिए जिस साधन के द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्ति और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ॥33॥
भगवान्ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया
तदध्यवस्यत्कूटस्थो रतिरात्मन्यतो भवेत् 34
भगवान् ब्रह्मा ने एकाग्रचित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया की जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्यप्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ॥34॥
भगवान्सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैरनुमापकैः 35
समस्त चर-अचर प्राणियों में उनके आत्मरूप से भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ॥35॥
तस्मात्सर्वात्मना राजन्हरिः सर्वत्र सर्वदा
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् 36
परीक्षित ! इसलिये मनुष्यों को चाहिये की सब समय और सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान् श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ॥36॥
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम्
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् 37
राजन ! संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान् की कथा का मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों को सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ॥37॥
No comments
Note: Only a member of this blog may post a comment.