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श्री राम स्तुति ।। Sansthanam. Silvassa. Shri Ram Stuti.

श्री राम स्तुति ।। Sansthanam. Silvassa.

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ।।१।।

अर्थ:- हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम । 
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥

अर्थ:- उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं । 
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥

अर्थ:- हे मन ! दीनों के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं । 
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥

अर्थ:- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी है । जो धनुष-बाण लिये हुए है, जिन्होने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं । 
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥

अर्थ:- जो शिव, शेषजी और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले है । तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करे ॥५॥

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो । 
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

अर्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेंगे । वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है । तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली । 
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥

अर्थ:- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई । तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥

जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि । 
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥

अर्थ:- गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय में जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता । सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥

रचना - गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ।।

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