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प्रथम स्कन्धः ।। अथ अष्टादशोऽध्यायः ।। BHAGWAT PURAN.

 श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम:  
 श्रीमद्भागवत महापुराणम्  
 प्रथम स्कन्धः 
 अथ अष्टादशोऽध्यायः ।।






सूत उवाच:-
यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः
अनुग्रहाद्भगवतः कृष्णस्याद्भुतकर्मणः 1

सूतजी कहते हैं ----- अदभुत कर्मा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं ।।1।।

ब्रह्मकोपोत्थिताद्यस्तु तक्षकात्प्राणविप्लवात्
न सम्मुमोहोरुभयाद्भगवत्यर्पिताशयः 2
    

जिस समय ब्राह्मण के शाप से उन्हें डसने के लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाथ के महान भय से भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था ।।2।।

उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम् 3
    

उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गंगातटपर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान् के स्वरुप को जानकार अपने शरीर को त्याग दिया ।।3।।

नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम्
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् 4
    

जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नही होता ।।4।।

तावत्कलिर्न प्रभवेत्प्रविष्टोऽपीह सर्वतः
यावदीशो महानुर्व्यामाभिमन्यव एकराट् 5
    

जबतक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित सम्राट रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था ।।5।।

यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवानुत्ससर्ज गाम्
तदैवेहानुवृत्तोऽसावधर्मप्रभवः कलिः 6
    

वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था ।।6।।

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट्सारङ्ग इव सारभुक्
कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत् 7
    

भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट परीक्षित कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण हैं कि पूण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; संकल्पमात्र से नहीं ।।7।।

किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते 8
    

यह भेड़िया के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है। यह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिए ही सदा सावधान रहता है ।।8।।

उपवर्णितमेतद्वः पुण्यं पारीक्षितं मया
वासुदेवकथोपेतमाख्यानं यदपृच्छत 9
    

शौनकादि ऋषियों ! आपलोगों को मैंने भगवान् की कथा से युक्त राजा परीक्षित का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगों ने यही पूछा था ।। 9।।

या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः 10
    

भगवान् श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत -सी लीलाओं से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिये ।।10।।

ऋषय ऊचुः
सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानाममृतं हि नः 11
    

ऋषियों ने कहा ---- सौम्यस्वाभाव सूतजी ! आप युग-युग जियें ; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हम लोगों को आप भगवान् श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्जवल कीर्ति का श्रवण कराते हैं ।।11।।

कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान्
आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु 12
    

यज्ञ करते -करते उसके धुएँ से हमलोगों का शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं हैं। इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ।।12।।

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः 13
    

भगवत -प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है ।।13।।

को नाम तृप्येद्रसवित्कथायां महत्तमैकान्तपरायणस्य
नान्तं गुणानामगुणस्य जग्मुर्योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः 14
    

ऐसा कौन रस -मर्मज्ञ होगा , जो महापुरुषों के एकमात्र जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला -कथाओं से तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से अतीत भगवान् के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणों का पार तो ब्रह्मा,शंकर आदि बड़े -बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ।।14।।

तन्नो भवान्वै भगवत्प्रधानो महत्तमैकान्तपरायणस्य
हरेरुदारं चरितं विशुद्धं शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन् 15
    

विद्वन ! आप भगवान् को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिए आप सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान् के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ।।15।।

स वै महाभागवतः परीक्षिद्येनापवर्गाख्यमदभ्रबुद्धिः
ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम् 16
तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थमाख्यानमत्यद्भुतयोगनिष्ठम्
आख्याह्यनन्ताचरितोपपन्नं पारीक्षितं भागवताभिरामम् 17
    

भगवान् के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किया हुए जी ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान् के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेमी की अद्भूत योगनिष्ठाका निरूपण किया गया होगा। उसमें पद -पदपर भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान् के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है ।।16-17।।

सूत उवाच
अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं महत्तमानामभिधानयोगः 18
    

सूतजी कहते हैं ----- अहो ! विलोम जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारन आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करनेमात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ।।18।।

कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य महत्तमैकान्तपरायणस्य
योऽनन्तशक्तिर्भगवाननन्तो महद्गुणत्वाद्यमनन्तमाहुः 19
    

फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान् का नाम लेते हैं भगवान् की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनंत कहा गया है ।।19।।

एतावतालं ननु सूचितेन गुणैरसाम्यानतिशायनस्य
हित्वेतरान्प्रार्थयतो विभूतिर्यस्याङ्घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः 20
    

भगवान् के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओं को छोड़कर भगवान् के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलों की रजका ही सेवन करती हैं ।।20।।

अथापि यत्पादनखावसृष्टं जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः 21
    

ब्रह्माजी ने भगवान् के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखों से निकलकर गंगाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजी सहित सारे जगत को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त 'भगवान्' शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ।।21।।

यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम्
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः 22
    

जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह -गेह आदिकी दृढ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशांत हो जाना ही स्वधर्म होता है ।।22।।

अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्भिराचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान्
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणस्तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः 23
    

सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं ! आपलोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा हैं, वह मैं अपनी शक्ति के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ाते है, वैसे ही विद्वानलोग भी अपनी -अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ।।23।।

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां वने
मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम् 24
    

एक दिन राजा परीक्षित धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते -दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी ।। 24।।

जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम्
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् 25
    

जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा की वहाँ आँखे बंद करके शान्तभाव से एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ।।25।।

प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राण मनोबुद्धिमुपारतम्
स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम् 26
    

इन्द्रिय,प्राण,मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पद में वे स्थित थे ।।26।।

विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च
विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत 27
    

उनका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।।27।।

अलब्धतृणभूम्यादिरसम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः
अवज्ञातमिवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह 28
    

जब राजा को वहाँ बैठने के लिए तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें भूमिपर भी बैठने को न कहा --- अघ्र्य  और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं --- तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ।। 28।।

अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृड्भ्यामर्दितात्मनः
ब्राह्मणं प्रत्यभूद्ब्रह्मन्मत्सरो मन्युरेव च 29
    

शौनकजी ! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे , इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ईष्र्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था।।29।।

स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा
विनिर्गच्छन्धनुष्कोट्या निधाय पुरमागतः 30
    

वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुष की नोक से एक मर साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये।।30।।

एष किं निभृताशेष करणो मीलितेक्षणः
मृषासमाधिराहोस्वित्किं नु स्यात्क्षत्रबन्धुभिः 31
    

उनके मन में यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्होने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यो सोचकर इन्होंने झूठ -मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है ।।31।।

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन्बालकोऽर्भकैः
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् 32
    

उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दुसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालक ने सुना की राजा ने मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ।।32।।

अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव
स्वामिन्यघं यद्दासानां द्वारपानां शुनामिव 33
    

'ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओं के समान संड -मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ! ब्राह्मणों के दस होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देनेवाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ।।33।।

ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः
स कथं तद्गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति 34
    

ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है ।।34।।

कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम्
तद्भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् 35
    

अतएव उन्मार्गगामीयों के शासक भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालों को आज मैं दंड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो' ।।35।।

इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यानृषिबालकः
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह 36
    

अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल -लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके अपने वाणी -रुपी वज्र का प्रयोग किया ।।36।।

इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् 37
    

'कुलांगार परीक्षित ने मेरे पिता का का अपमान करके मर्यादा का उल्लघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा'।।37।।

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम्
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह 38
    

इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।।38।।

स वा आङ्गिरसो ब्रह्मन्श्रुत्वा सुतविलापनम्
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् 39
    

विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना -चिल्लना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखे खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है ।।39।।

विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि
केन वा तेऽपकृतमित्युक्तः स न्यवेदयत् 40
    

उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा - 'बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?' उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ।।40।।

निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत्
अहो बतांहो महदद्य ते कृतमल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः 41
    

ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नही किया। उनकी दृष्टि में परीक्षित शाप के योग्य नहीं थे। उहोने कहा --- 'ओह, मुर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिए तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया।।41।।

न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः 42
    

तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिए; क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।।42।।

अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यत्यरक्ष्यमाणोऽविवरूथवत्क्षणात् 43
    

जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान् पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा ।।43।।

तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात्
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते पशून्स्त्रियोऽर्थान्पुरुदस्यवो जनाः 44
    

राजा के नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हम पर भी लागू होगा। क्योंकि राजा के न रहनेपर लूटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार -पीट , गाली -गलौज करते हैं , साथ ही पशु,स्त्री और धन -सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ।। 44।।

तदार्यधर्मः प्रविलीयते नृणां वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः 45
    

उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचारयुक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ -लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरो के समान वर्णसंकर हो जाते हैं ।।45।।

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड्बृहच्छ्रवाः
साक्षान्महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट्
क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति 46
    

सम्राट परीक्षित तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत -से अश्वमेघ यज्ञ किये हैं और वे भगवान् के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख -प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं ।।46।।

अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना
पापं कृतं तद्भगवान्सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति 47
    

इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान् कृपा करके इसे क्षमा करें ।।47।।

तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि 48
    

भगवान् के भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परन्तु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान,धोखेबाजी,गाली -गलौज ,आक्षेप और मार -पीट का कोई बदला नहीं लेते ।।48।।

इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् 49

महामुनि शमीक को पुत्र के  अपराध पर बड़ा पश्चताप हुआ। राजा परीक्षित ने जो उनका अपमान किया था, उस पर तो उन्होंने
ध्यान  ही नहीं दिया।।49।।

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः 50
    

महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत में जब दुसरे लोग उन्हें सुख -दुःखादि द्वंद्वों में डाल देते हैं , तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरुप तो गुणों से सर्वथा परे है ।।50।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायाम् प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नामष्टादशोऽध्यायः ।।

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