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प्रथम स्कन्धः || अथ एकोनविंशोऽध्यायः || BHAGWAT PURAN.

 श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम:  
 श्रीमद्भागवत महापुराणम्  
 प्रथम स्कन्धः 
 अथैकोनविंशोऽध्यायः  

सूत उवाच
महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं विचिन्तयन्नात्मकृतं सुदुर्मनाः
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि 1
    

सूतजी कहते है ----- राजधानी में पहुँचने पर राजा परीक्षित को अपने उस निन्दनीय कर्म के लिये  बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त  उदास हो गये और सोचने लगे --- 'मैंने निरपराध एवं अपना तेज़ छिपाये हुए ब्राह्मण के साथ अनार्य पुरुषों के समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेद की बात है ।।1।।

ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा 2
    

अवश्य ही उन महात्मा के अपमान के फलस्वरूप शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायेगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करने का दुःसाहस नही करूँगा ।।2।।

अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः 3
    

ब्राह्मणों की क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य,सेना और भरे -पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे --- जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण ,देवता और गौओं के प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ।।3।।

स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद्यथा मुनेः सुतोक्तो निरृतिस्तक्षकाख्यः
स साधु मेने न चिरेण तक्षका नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् 4
    

वे इस प्रकार चिन्ता  कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ ---ऋषिकुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसार में आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होने का कारण प्राप्त हो गया ।।4।।

अथो विहायेमममुं च लोकं विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात्
कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान उपाविशत्प्रायममर्त्यनद्याम् 5
    

वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरुपतः त्याग करके भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा को ही सर्वोपरी मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगातट पर बैठ गये ।।5।।

या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र कृष्णाङ्घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः 6
    

गंगाजी का जल भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का वह प्राग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्ध से मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर -नीचे के समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? ।।6।।

इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम्
दधौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावो मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः 7
    

इस प्रकार गंगाजी के तटपर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियों का व्रत स्वीकार करके अनन्यभाव से श्रीकृष्ण चरणकमलों का ध्यान करने लगे।।7।।

तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना महानुभावा मुनयः सशिष्याः
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः 8
    

उस समय त्रिलोकी को पवित्र करनेवाले बड़े -बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थयात्रा के बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानों को ही पवित्र करते हैं।।8।।

अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वानरिष्टनेमिर्भृगुरङ्गिराश्च
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ 9
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिर्द्वैपायनो भगवान्नारदश्च 10
अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या राजर्षिवर्या अरुणादयश्च
नानार्षेयप्रवरान्समेतानभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे 11
    

उस समय वहाँ पर अत्रि,वसिष्ठ,च्यवन,शरद्वान,अरिष्टनेमि, भृगु,अंगिरा,पराशर,विश्वामित्र,परशुराम, उतथ्य,इन्द्रप्रमद,इध्मवाह,मेधातिथि,देवल,आर्ष्टिषेण भरद्वाज,गौतम,पिप्पलाद,मैत्रेय,और्व,कवष,अगस्त्य,भगवान् व्यास,नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्यों का शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य -मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर  रखकर वन्दना की ।।9-11।।

सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत्
विज्ञापयामास विविक्तचेता उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः 12
    

जब सब लोग आराम से अपने -अपने आसनों पर बैठ गये , तब महाराज परीक्षित ने उन्हें फिर से प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदय से अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ।।12।।

राजोवाच
अहो वयं धन्यतमा नृपाणां महत्तमानुग्रहणीयशीलाः
राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचाद्दूराद्विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म 13
    

राजा परीक्षित ने कहा ----- अहो ! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं। धन्य्तम हैं। क्योंकि अपने शील -स्वाभाव के कारण हम आप महापुरुषों के कृपापात्र बन गये हैं। राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राह्मणों के चरण -धोवन से दूर पड़ जाते हैं--- कितने खेद की बात है ।। 13।।

तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम्
निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते 14
    

मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह -गेह  में आसक्त रहने के कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ।इसी से स्वयं भगवान् ही ब्राह्मण के शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। क्योंकि इस प्रकार के शाप से संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ।।14।।

तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः 15
    

ब्राह्मणों ! अब मैंने अपने चित्त को भगवान् के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपलोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकार मुझपर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमार के शाप से प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले; इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है। आपलोग कृपा करके भगवान् की रसमयी लीलाओं का गायन करें ।।15।।

पुनश्च भूयाद्भगवत्यनन्ते रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु
महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः 16
    

मैं आप ब्राह्मणों के चरणों में प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में जन्म लेना पड़े, भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक -सी मैत्री रहे। ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ।।16।।

इति स्म राजाध्यवसाययुक्तः प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः
उदङ्मुखो दक्षिणकूल आस्ते समुद्रपत्न्याः स्वसुतन्यस्तभारः 17
    

महाराज परीक्षित परमधीर थे। वे ऐसा दृढ निश्चय करके गंगाजी दे दक्षिण तटपर पूर्वाग्र कुशों के आसनपर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज -काज का भर तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया था ।।17।।

एवं च तस्मिन्नरदेवदेवे प्रायोपविष्टे दिवि देवसङ्घाः
प्रशस्य भूमौ व्यकिरन्प्रसूनैर्मुदा मुहुर्दुन्दुभयश्च नेदुः 18
    

पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट परीक्षित जब इस प्रकार आमरण अनशन का निश्चय करके बैठ गये, तब आकाश में स्थित देव्तालोग बड़े आनन्द से उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार -बार बजने लगे ।।18।।

महर्षयो वै समुपागता ये प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः
ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम् 19
    

सभी उपस्थित महर्षियों ने परीक्षित के निश्चय की प्रशंसा की और 'साधु -साधु 'कहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषिलोग तो स्वाभाव से ही लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी साडी शक्ति लोकपर कृपा करने के लिए ही होती है। उन लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों से प्रभावित परीक्षित के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे ।।19।।

न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु
येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः 20
    

'राजर्षिशिरोमणे ! भगवान् श्रीकृष्ण के सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियों के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योकि आपलोगों ने भगवान् की सन्निधि प्राप्त करने की आकांक्षा से उस राजसिंहासन का एक क्षण में ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े -बड़े राजा अपने मुकुटों से करते थे ।। 20।।

सर्वे वयं तावदिहास्महेऽथ कलेवरं यावदसौ विहाय
लोकं परं विरजस्कं विशोकं यास्यत्ययं भागवतप्रधानः 21
    

हम सब तबतक यहीं रहेंगे, जबतक ये भगवान् के परम भक्त परीक्षित अपने नश्वर शरीर को छोड़कर मायादोष एवं शोक से रहित भगवद्धाम में नहीं चले जाते' ॥21॥

आश्रुत्य तदृषिगणवचः परीक्षित्समं मधुच्युद्गुरु चाव्यलीकम्
आभाषतैनानभिनन्द्य युक्तान्शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः 22
    

ऋषियों के  वचन बड़े ही मधुर,गम्भीर,सत्य और समता से युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित ने उन योगयुक्त मुनियों का अभिनन्दन किया और भगवान् के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषियों से प्रार्थना की ।।22।।

समागताः सर्वत एव सर्वे वेदा यथा मूर्तिधरास्त्रिपृष्ठे
नेहाथ नामुत्र च कश्चनार्थ ऋते परानुग्रहमात्मशीलम् 23
    

'महात्माओं ! आप सभी सब ओर से यहाँ पधारे हैं। आप सत्यलोक में रहनेवाले मूर्तिमान वेदों के समान हैं। आपलोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है ।।23।।

ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम्
सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः 24
    

विप्रवरो ! आपलोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ। आप सभी विद्वान परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरनेवाले पुरुषों के लिये अन्तःकरण और शरीर से करनेयोग्य विशुद्ध कर्म कौन -सा हैं ।। 24।।

तत्राभवद्भगवान्व्यासपुत्रो यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो वृतश्च बालैरवधूतवेषः 25
    

उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए, किसी की कोई उपेक्षा न रखनेवाले व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिह्नों से रहित एवं आत्मानुभूति में संतुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था उनका वेष अवधूत का था ।।25।।

तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम्
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण सुभ्र्वाननं कम्बुसुजातकण्ठम् 26
    

सोलह वर्ष की अवस्था था। चरण,हाथ,जंघा,भुजाएँ,कंधे,कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े -बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुंदर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा थे। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था ।।26।।

निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षसमावर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च 
दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमाभम् 27
    

हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुंदर,त्रिवली से युक्त था। लम्बी -लम्बी भुजाएँ थीं , मुखपर घुँघराले  बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ट देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे ।।27।।

श्यामं सदापीव्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन
प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्यस्तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम् 28
    

श्याम रंग था। चित्त को चुरानेवाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुस्कान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जाननेवाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब -के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए ।।28।।

स विष्णुरातोऽतिथय आगताय तस्मै सपर्यां शिरसाजहार
ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका महासने सोपविवेश पूजितः 29
    

राजा परीक्षित ने अतिथिरूप से पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुककर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरुप को न जाननेवाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए ।।29।।

स संवृतस्तत्र महान्महीयसां ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसङ्घैः
व्यरोचतालं भगवान्यथेन्दुर्ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः 30
    

ग्रह,नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रह्मर्षि,देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेवजी जी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे ।।30।।

प्रशान्तमासीनमकुण्ठमेधसं मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिर्नत्वा गिरा सूनृतयान्वपृच्छत् 31
    

जब प्रखरबुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्तभाव से बैठ गये, तब भगवान् के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा ।।31।।

परीक्षिदुवाच
अहो अद्य वयं ब्रह्मन्सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः
कृपयातिथिरूपेण भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः 32
    

परीक्षित ने कहा ----- ब्रह्मस्वरूप भगवन ! आज हम बडभागी हुए ; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत -समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूप से पधारकर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया ।।32।।

येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः
किं पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः 33
    

आप -जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थो के घर तत्काल पवित्र हो जाते है;फिर दर्शन,स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसन -दानादि का सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है ।।33।।

सान्निध्यात्ते महायोगिन्पातकानि महान्त्यपि
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः 34
    

महायोगिन ! जैसे भगवान् विष्णु के सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते , वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े -बड़े पाप भी तुरन्त नष्ट हो जाते हैं ।। 34।।

अपि मे भगवान्प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्गोत्रस्यात्तबान्धवः 35
    

अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया हैं ।।35।।

अन्यथा तेऽव्यक्तगतेर्दर्शनं नः कथं नृणाम्
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः 36
    

भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा न होती तो आप -सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिंद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्यु के समय हम -जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते ।।36।।

अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम्
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा 37
    

आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आप से परम सिद्धि के स्वरुप और साधन के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये? ।।37।।

यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् 38
    

भगवन ! साथ ही यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण,किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? ।।38।।

नूनं भगवतो ब्रह्मन्गृहेषु गृहमेधिनाम्
न लक्ष्यते ह्यवस्थानमपि गोदोहनं क्वचित् 39
    

भगवत्स्वरूप मुनिवर ! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ; क्योंकि जिनती देर एक गाय दुही जाती हैं, गृहस्थों के घर पर उन्ती देर भी तो आप नहीं ठहरते ।।39।।

सूत उवाच
एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान्बादरायणिः 40
    

सूतजी कहते हैं ----- जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ।।40।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायाम् प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ।।
                                      ।प्रथम स्कन्धः समाप्तः । हरिः ॐ तत्सत्

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