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द्वितीय स्कन्धः ।। अथ षष्ठोऽध्यायः।। BHAGWAT PURAN.


।। श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।  ।। श्रीमद्भागवत महापुराणम् ।।
।। द्वितीय स्कन्धः ।।  ।। अथ षष्ठोऽध्यायः ।।

ब्रह्मोवाच
वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः
हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च 1

ब्रह्माजी कहते हैं ----- उन्हीं विराट पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द उनकी सात धातुओं से निकले हैं। मनुष्यों,पितरों और अन्न,सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट पुरुष जिह्वा से उत्पन्न हुए हैं ॥1॥

सर्वासूनां च वायोश्च तन्नासे परमायणे
अश्विनोरोषधीनां च घ्राणो मोदप्रमोदयोः 2

उनके नासाछ्न्द्रों से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान --- ये पाँचो प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्वनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥2॥

रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयोः
तद्गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् 3

उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं से निकले हैं। उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं से सारभाग तथा सौन्दर्य का खजाना है ॥3॥

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि
रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः 4

सारे यज्ञ,स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं; उनके रोम सभी उभ्दिज्ज पदार्थों के जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हीं के, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥4॥

केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम्
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् 5

उनके केश,दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ,बिजली,शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओं से प्रायः संसार की रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ॥5॥

विक्रमो भूर्भुवः स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च
सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् 6

उनका चलना-फिरना भूः,भुवः,स्वः --- तीनों लोकों का आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है ॥6॥

अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्दनिर्वृतेः 7

विराट पुरुष का लिंग जल, वीर्य,सृष्टि,मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनंद का उदगम है ॥7॥

पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद
हिंसाया निरृतेर्मृत्योर्निरयस्य गुदं स्मृतः 8

नारदजी ! विराट पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम,मित्र और मलत्याग का तथा गुदाद्वार हिंसा निरऋती,मृत्यु और नरक का उत्पत्तिस्थान है ॥8॥

पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः
नाड्यो नदनदीनां च गोत्राणामस्थिसंहतिः 9

उनकी पीठ से पराजय,अधर्म और अज्ञान,नाड़ियों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वतों का निर्माण हुआ है ॥9॥

अव्यक्तरससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् 10

उनके उदर में मूल प्रकृति,रस नाम की धातु तथा समुद्र,समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है।उनका हृदय ही मन की जन्मभूमि है ॥10॥

धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्यात्मा परायणम् 11

नारद ! हम,तुम,धर्म,सनकादि,शंकर,विज्ञान और अन्तःकरण --- सब उनके चित्त के आश्रित हैं ॥11॥

अहं भवान्भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः 12
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः 13
अन्ये च विविधा जीवाजलस्थलनभौकसः
ग्रहर्क्षकेतवस्तारास्तडितः स्तनयित्नवः 14
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत्
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति 15

( कहाँ तक गिनायें --- ) मैं,तुम,तुम्हारे बड़े भाई सनकादि,शंकर,देवता,दैत्य,मनुष्य, नाग, पक्षी,मृग,रेंगनेवाले जन्तु,गन्धर्व,अप्सराएँ,यक्ष,राक्षस,भूत-प्रेत, सर्प,पशु,पितर,सिंद्ध,विद्याधर,चारण,वृक्ष और नाना प्रकार के जीव--- जो आकाश,जल या स्थल में रहते हैं --- ग्रह-नक्षत्र,केतु ( पुच्छल तारे ) तारे,बिजली और बादल --- ये सब-के-सब विराट पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व --- जो कुछ कभी था, है या होगा--- सबको वह घेरे हुए है और उसके अन्दर यह विश्व उसके केवल दस अंगुल के परिमाण में ही स्थित है ॥12 -15॥

स्वधिष्ण्यं प्रतपन्प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ
एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यन्तर्बहिः पुमान् 16

जैसे सूर्य अपने मण्डल को प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुरंपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर---सर्वत्र एकरस प्रकशित हो रहा है ॥16॥

सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यमन्नं यदत्यगात्
महिमैष ततो ब्रह्मन्पुरुषस्य दुरत्ययः 17

मुनिवर ! जो कुछ मनुष्य की क्रिया और संकल्प से बनता है, उससे वह प्रे है और अमृत एवं अभयपद ( मोक्ष )--- का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सकता ॥17॥

पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु 18

सम्पूर्ण लोक भगवान् के एक पादमात्र ( अंशमात्र ) हैं, तथा उनके अंशमात्र लोकों में समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक,भुवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर  ऊपर महर्लोक हैं। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकों में क्रमशः अमृत,क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है ॥18॥

पादास्त्रयो बहिश्चासन्नप्रजानां य आश्रमाः
अन्तस्त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः 19

जन,तप और सत्य--- इन तीनों लोकों में ब्रह्मचारी,वानप्रस्थ एवं सन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक,भूवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं ॥19॥

सृती विचक्रमे विश्वम्साशनानशने उभे
यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तूभयाश्रयः 20

शास्त्रों में दो मार्ग बतलाये गये हैं --- एक अविद्यारूप कर्ममार्ग,जो सकाम पुरुषों के लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्या का मार्ग, जो निष्काम उपासकों के लिये है। मनुष्य दोनों में से किसी एक का आश्रय लेकर भोग प्राप्त करनेवाले दक्षिणमार्ग से अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्ग से यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान् दोनों दे आधारभूत हैं ॥20॥

यस्मादण्डं विराड्जज्ञे भूतेन्द्रियगुणात्मकः
तद्द्रव्यमत्यगाद्विश्वं गोभिः सूर्य इवातपन् 21

जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मा से इस अण्ड की और पंचभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट की उत्पत्ति हुई है --- वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओं के अन्दर और उनके रूप में रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥21॥

यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मनः
नाविदं यज्ञसम्भारान्पुरुषावयवानृते 22

जिस समय इस विराट पुरुष के नाभिकमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अंगों के अतिरिक्ति मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली ॥22॥

तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः
इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वितः 23

तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु,यूप ( स्तम्भ ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ॥23॥

वस्तून्योषधयः स्नेहा रसलोहमृदो जलम्
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम 24
नामधेयानि मन्त्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पस्तन्त्रमेव च 25
गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम्
पुरुषावयवैरेते सम्भाराः सम्भृता मया 26

ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ,जौं,चावल आदि ओषधियाँ,घृत आदि स्नेहपदार्थ,छः रस,लोहा,मिट्टी,जल,ऋक,यजुः,साम,चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम,मंत्र,दक्षिणा,व्रत,देवताओं के नाम, पद्धतिग्रंथ,संकल्प,तंत्र ( अनुष्ठान की रीती ),गति,मति,श्रद्धा,प्रायश्चित और समर्पण --- यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट पुरुष के अंगों से ही इकट्ठी की ॥24 -26॥

इति सम्भृतसम्भारः पुरुषावयवैरहम्
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् 27

इस प्रकार विराट पुरुष के अंगों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्मा का यज्ञ के द्वारा यजन किया ॥27॥

ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव
अयजन्व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः 28

तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट एवं अन्तर्यामीरूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की ॥28॥

ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् 29

इसके पश्चात् समय-समयपर मनु,ऋषि,पितर,देवता,दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना की ॥29॥

नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम्
गृहीतमायोरुगुणः सर्गादावगुणः स्वतः 30

नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं ॥30॥

सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् 31

उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रूद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व,राज और ताम की तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ॥31॥

इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि
नान्यद्भगवतः किञ्चिद्भाव्यं सदसदात्मकम् 32

बेटा ! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वास्तु नहीं है जो भगवान से भिन्न हो ॥32॥

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरिः 33

प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कंठित हृदय से भगवान् के स्मरण में मग्न रहता हूँ इसी से मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दिखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लघंन करके कुमार्ग में नहीं जातीं ॥33॥

सोऽहं समाम्नायमयस्तपोमयः प्रजापतीनामभिवन्दितः पतिः
आस्थाय योगं निपुणं समाहितस्तं नाध्यगच्छं यत आत्मसम्भवः 34

मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जेवण तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्मा के स्वरुप को नहीं जान सका ॥34॥

नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम्
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः 35

( क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मंगलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ानेवाले परम कल्याणस्वरुप भगवान् के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी माया की शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं? ॥35॥

नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुर्न वामदेवः किमुतापरे सुराः
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे 36

मैं मेरे पुत्र तुम लोग और शंकरजी भी उनके सत्यस्वरुप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी माया के द्वारा रचे हुए जगत को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही अटकल लगाते हैं ॥36॥

यस्यावतारकर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः 37

हमलोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानते उन भगवान् के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥37॥

स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः
आत्मात्मन्यात्मनात्मानं स संयच्छति पाति च 38

वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने-आप में अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ॥38॥

विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक्सम्यगवस्थितम्
सत्यं पूर्णमनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् 49

वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञानस्वरुप हैं और अंतरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ॥39॥

ऋषे विदन्ति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः
यदा तदेवासत्तर्कैस्तिरोधीयेत विप्लुतम् 40

नारद ! महत्मालोग जिस समय अपने अन्तःकरण,इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षत्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषों  के द्वारा कुतर्कों का जाल विछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ॥40॥

आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य कालः स्वभावः सदसन्मनश्च
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि विराट्स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः 41

परमात्मा का पहला अवतार विराट पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वाभाव कार्य, कारण, मन, पंचभूत,अहंकार,तीनों गुण,इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी,स्थावर और जंगम जीव--- सब-के-सब उन अनन्तभगवान् के ही रूप हैं ॥41॥

अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा दक्षादयो ये भवदादयश्च
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला नृलोकपालास्तललोकपालाः 42
गन्धर्वविद्याधरचारणेशा ये यक्षरक्षोरगनागनाथाः
ये वा ऋषीणामृषभाः पित्णां दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत कूष्माण्डयादोमृगपक्ष्यधीशाः 43
यत्किञ्च लोके भगवन्महस्वदोजःसहस्वद्बलवत्क्षमावत्
श्रीह्रीविभूत्यात्मवदद्भुतार्णं तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम् 44

मैं,शंकर,विष्णु,दक्ष आदि ये प्रजापति,तुम और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन,स्वर्गलोक के रक्षक,पक्षियों के राजा,मनुष्यलोक के राजा,नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व,विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस,साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र,सिद्धेश्वर,दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जंतु,मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ एश्वर्य,तेज,इन्द्रियबल, मनोबल,शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य,लज्जा, वैभव तथा विभूति से युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अदभूत वर्णवाली,रूपवान या अरूप हैं --- वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्त्वरूप ही हैं ॥42-44॥

प्राधान्यतो यानृष आमनन्ति लीलावतारान्पुरुषस्य भूम्नः
आपीयतां कर्णकषायशोषाननुक्रमिष्ये त इमान्सुपेशान् 45

नारद ! इनके सिवा परम पुरुष परमात्मा के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ॥45॥

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