प्रथम स्कन्धः ।। अथ नवमोऽध्यायः ।। BHAGWAT PURAN.
।। श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ।। ।। श्रीमद्भागवत महापुराणम् ।।
।। प्रथम स्कन्धः ।। ।। अथ नवमोऽध्यायः ।।
।। प्रथम स्कन्धः ।। ।। अथ नवमोऽध्यायः ।।
सूत उवाच
इति भीतः प्रजाद्रोहात्सर्वधर्मविवित्सया
ततो विनशनं प्रागाद्यत्र देवव्रतोऽपतत् 1
सूतजी कहते हैं----- इस प्रकार राजा युधिष्टिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये। फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे ।।1।।
तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः
अन्वगच्छन्रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा 2
शौनकादि ऋषियों ! उस समय उन सब भाइयों ने स्वर्णजटित रथों पर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्टिर का अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ।।2।।
भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनञ्जयः
स तैर्व्यरोचत नृपः कुवेर इव गुह्यकैः 3
शौनकजी ! अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण भी रथ पर चढ़कर चले। उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्टिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ।।3।।
दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतमिवामरम्
प्रणेमुः पाण्डवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा 4
अपने अनुचरों और भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया ।।4।।
तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम
राजर्षयश्च तत्रासन्द्रष्टुं भरतपुङ्गवम् 5
शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियों के गौरवरूप भीष्मपितामह को देखने के लिए सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ।।5।।
पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान्बादरायणः
बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः 6
वसिष्ठ इन्द्रप्रमदस्त्रितो गृत्समदोऽसितः
कक्षीवान्गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः 7
अन्ये च मुनयो ब्रह्मन्ब्रह्मरातादयोऽमलाः
शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपाङ्गिरसादयः 8
पर्वत,नारद,धौम्य,भगवान् व्यास, वृह्द्श्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ट, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान, गौतम,अत्रि,विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप,अंगीरा पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ।।6-8।।
तान्समेतान्महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः
पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् 9
भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बडभागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ।।9।।
कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम्
हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्तविग्रहम् 10
वे भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ।।10।।
पाण्डुपुत्रानुपासीनान्प्रश्रयप्रेमसङ्गतान्
अभ्याचष्टानुरागाश्रैरन्धीभूतेन चक्षुषा 11
पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामह की आँखें प्रेम के आँसुओं से भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा---।।11।।
अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद्यूयं धर्मनन्दनाः
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः 12
धर्मपुत्रो ! हाय ! हाय ! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राह्मण, धर्म और भगवान् के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ।।12।।
संस्थितेऽतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः
युष्मत्कृते बहून्क्लेशान्प्राप्ता तोकवती मुहुः 13
अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगों के लिए कुंती रानी को औरर साथ-साथ तुम्हे भी बार-बार बहुत से कष्ट झेलने पड़े ।।13।।
सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम्
सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलिः 14
जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार कालभगवान् के अधीन है। मैं समझाता हूँ कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला हैं ।।14।।
यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः
कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत्कृष्णस्ततो विपत् 15
नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्टिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों---भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है?।।15।।
न ह्यस्य कर्हिचिद्राजन्पुमान्वेद विधित्सितम्
यद्विजिज्ञासया युक्ता मुह्यन्ति कवयोऽपि हि 16
ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते है, इस बात का कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।।16।।
तस्मादिदं दैवतन्त्रं व्यवस्य भरतर्षभ
तस्यानुविहितोऽनाथा नाथ पाहि प्रजाः प्रभो 17
युधिष्टिर ! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्ही इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो ।।17।।
एष वै भगवान्साक्षादाद्यो नारायणः पुमान्
मोहयन्मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु 18
ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं ।।18।।
अस्यानुभावं भगवान्वेद गुह्यतमं शिवः
देवर्षिर्नारदः साक्षाद्भगवान्कपिलो नृप 19
इनका प्रभाव अत्यंत गूढ़ और रहस्यमय है। युधिष्टिर ! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं ।।19।।
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम्
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् 20
जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ।।20।।
सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित् 21
इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती ।।21।।
तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम्
यन्मेऽसूंस्त्यजतः साक्षात्कृष्णो दर्शनमागतः 22
युधिष्टिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों को त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ।।22।।
भक्त्यावेश्य मनो यस्मिन्वाचा यन्नाम कीर्तयन्
त्यजन्कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः 23
भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर्म के बन्धन से छूट जाते हैं ।।23।।
स देवदेवो भगवान्प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम्
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः 24
वे ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान अरुण नेत्रों से उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूप से, जिसका और लोगोंको केवल ध्यान में दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जबतक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ ।।24।।
सूत उवाच
युधिष्ठिरस्तदाकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे
अपृच्छद्विविधान्धर्मानृषीणां चानुशृण्वताम् 25
सूतजी कहते हैं----- युधिष्टिर ने उनकी यह बात सुनकर शरशय्यापर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध मन अनेकों रहस्य पूछे ।।25।।
पुरुषस्वभावविहितान्यथावर्णं यथाश्रमम्
वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातोभयलक्षणान् 26
दानधर्मान्राजधर्मान्मोक्षधर्मान्विभागशः
स्त्रीधर्मान्भगवद्धर्मान्समासव्यासयोगतः 27
धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान्यथा मुने
नानाख्यानेतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित् 28
तब तत्त्ववेत्ता भीष्मपितामह ने वर्ण और आश्रम के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारन विभिन्नरूप से बतलाये हुए निर्वृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म --- इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया। शौनकजी ! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --- इन चारों पुरुषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया ।।26-28।।
धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः
यो योगिनश्छन्दमृत्योर्वाञ्छितस्तूत्तरायणः 29
भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ।।29।।
तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीर्विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे पुरः स्थितेऽमीलितदृग्व्यधारयत् 30
उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान् श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजी की आँखे उसी पर एकटक लग गयीं ।।30।।
विशुद्धया धारणया हताशुभस्तदीक्षयैवाशु गतायुधश्रमः
निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रमस्तुष्टाव जन्यं विसृजञ्जनार्दनम् 31
उनको शास्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान् के दर्शनमात्र से ही तुरन्त दूर हो गयी तथा भगवान् की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्तिविलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान् की स्तुति की ।।31।।
श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः 32
भीष्मजी ने कहा----- अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्टान करने से अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरुप में स्थित रहते हुए ही कभी विहार करने की लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टिपरम्परा चलती है ।।32।।
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या 33
जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान साँवला है, जिसपर सूर्यरश्मियों के समान श्रेष्ट पीताम्बर लहराता है और कमल-सदृश मुख पर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो ।।33।।
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये
मम निशितशरैर्विभिद्यमान त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा 34
मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ों की टॉप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की छोटी-छोटी बुँदे शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ ।।34।।
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु 35
अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर, जो तुरन्त ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेना के बीच में अपना रथ ले आये वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टी से ही शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो ।।35।।
व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या
कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु 36
अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हमलोगों को देखा तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञान का नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे ।।36।।
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञामृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गुर्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः 37
मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूंगा; उसे सत्य एवं ऊँची करने के लिए उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिए उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी ।।37।।
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान्गतिर्मुकुन्दः 38
मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों- आश्रय हों ।।38।।
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोर्यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् 39
अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिस श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोंड़ों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्ध में मरने वाले वीर जिनकी इस छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारूप्य मोक्ष को प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्ण में मुझ मरणासन्न की परम प्रीति हो ।।39।।
ललितगतिविलासवल्गुहास प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन्किल यस्य गोपवध्वः 40
जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव - भावयुक्त चेष्टाएँ,मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यंत सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्ही भगवान् श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो ।।40।।
मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम्
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा 41
जिस समय युधिष्टिर का राजसूययज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं ।।41।।
तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः 42
जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ।।42।।
सूत उवाच
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् 43
सूतजी कहते हैं----- इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन,वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीं कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ।।43।।
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले
सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये 44
उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिन के बीत जानेपर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है ।।44।।
तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिताः
शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः 45
उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वाभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी ।।45।।
तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव
युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत् 46
शौनकजी ! युधिष्टिर ने उनके मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिए वे शोकमग्न हो गये ।।46।।
तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तद्गुह्यनामभिः
ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान्प्रययुः पुनः 47
उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान् श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयों की श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये ।।47।।
ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम्
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् 48
तदन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के साथ युधिष्टिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढाढस बँधाया ।।48।।
पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः
चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः 49
फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्टिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे ।।49।।
No comments
Note: Only a member of this blog may post a comment.