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गीता जी का कर्म सिद्धांत !! Geeta ka karm Siddhant !!

जय श्रीमन्नारायण,

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः !!
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते !!

अर्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञ सम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं !!

उपर का ये श्लोक गीता का है, जो साक्षात् स्वयं पूर्ण ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण के श्री मुख से अर्जुन के प्रति नि:सृत हुई है ! लेकिन हम तो पता नहीं इन श्लोकों से कैसे-कैसे अर्थ ढूंढ निकालते हैं ! इन शब्दों को एक बार आप गहराई से पढ़े !!

१.जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, पहली बात - अगर हम इन श्लोकों का अर्थ आध्यात्मिक भाव से करते हैं, तो सबसे पहले हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए, कि क्या हमारी आसक्ति पूर्णतः नष्ट हो चुकी है ? हम प्रकृति के द्वंद्वों को सहन करने में पूर्ण सक्षम हैं ??

२.जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, दूसरी बात - क्या हमारे अंदर हमारे ही शरीर के प्रति कोई रक्षण या पोषण भाव विद्यमान है ? अथवा अपनों के प्रति ममता या किसी के भी प्रति ममता बाकि है, अथवा पूर्ण हो गई ? अगर थोड़ी सी भी ममता किसी के प्रति भी बाकि है, तो कर्म करे, आध्यात्मिक बातें रटने या बनाने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है !!

३.जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है - क्या ऐसा हमारे साथ भी होता है, अथवा केवल जुबानी है ? अगर जुबानी है, तो आप अपने एवं अपने समर्थकों के लिए भी नरक जाने कि व्यवस्था में लगे हैं ! इससे अच्छा होगा कि आप कर्म मार्ग को अपनाएँ और उसी का उपदेश करें !!

४.ऐसा केवल यज्ञ सम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं !! ऐसा यानि कैसा - आप आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुँच सकते हैं, बिना किसी योग साधना और मेडिटेशन के कैसे - यज्ञार्थ कर्म करके और आप अपने सभी कर्म दोषों से भी निवृत्त हो सकते हैं - यज्ञार्थ कर्म करके, आप मुक्ति के प्राप्त कर्ता ही नहीं बल्कि दाता भी बन सकते हैं, यज्ञार्थ कर्म करके !!

कैसा यज्ञार्थ कर्म - मंदिर में भगवान है, कि नहीं इस भाव से उपर उठकर, और हमारे कर्म अच्छे हो रहे हैं, हमारे द्वारा सत्कर्म बन रहा है, इस भाव से ! सुनिए गोस्वामी जी के मतानुसार, वाल्मीकि मुनि के शब्दों में --

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा ! सादर जासु लहइ नित नासा !!
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ! प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं !!

अर्थ:-जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित पुष्पादि, सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं, और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं !!
और सुनिए ---
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी ! प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी !!
कर नित करहिं राम पद पूजा ! राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा !!


अर्थ:-जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य श्री रामचन्द्रजी (आप) के श्री चरणों की पूजा (सेवा) करते हैं, और जिनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरे किसी का नहीं !! और आगे बताते हैं ---

चरन राम तीरथ चलि जाहीं ! राम बसहु तिन्ह के मन माहीं !!
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा ! पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा !!


अर्थ:-तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे रामजी ! आप उनके मन में निवास कीजिए ! जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार (परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं, हे मेरे प्रभु, आप उनके हृदय में निवास करें !!!

तरपन होम करहिं बिधि नाना ! बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना !!
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी ! सकल भायँ सेवहिं सनमानी !!


अर्थ:-जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं, तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं, हे मेरे प्रभु, आप उनके हृदय में ही निवास करें !!!

और ये सब कुछ तो अनिवार्य रूप से करे ही, लेकिन करने के उपरांत आपसे मांगे क्या ?? - गोस्वामी जी कहते है, कि ---

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ !!
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ !!


अर्थ:-और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं, कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन (ऐसे) लोगों के मन रूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित करने वाले आप दोनों बसिए !!

क्योंकि - यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः !!
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते !!

अर्थ : जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है - ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता !!

बल्कि मुक्त हो जाता है, और दूसरों को भी मुक्ति देने के काबिल हो जाता है !!!


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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

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