साष्टांग दंडवत प्रणाम क्यों किया जाता है ? Sansthanam
जय श्रीमन्नारायण,
शास्त्रों में दंडवत प्रणाम को "साष्टांग प्रणाम" भी कहा जाता है ! प्राचीनकाल में "दंड" सीधे बाँस को कहा जाता था, और जब इस बाँस को भूमि पर समतल रख दिया जाए, तो वह मुद्रा "दण्डवत" हो जाती है ! जब शरीर को इसी अवस्था में मुंह के बल भूमि पर लिटा दिया जाए, तो इसे दंडवत प्रणाम कहते हैं ! शरीर की इस मुद्रा में शरीर के छ: अंगों का भूमि से सीधा स्पर्श होता है ! अर्थात् शरीर मे स्थित छ: महामर्मो का स्पर्श भूमि से हो जाता है, जिन्हें वास्तुशास्त्र में "षण्महांति" या "छ:महामर्म" स्थान माना जाता है ! ये अंग वास्तुपुरूष के महामर्म इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि ये शरीर (प्लॉट) के अतिसंवेदनशील अंग होते हैं !!
योगशास्त्र में इन्हीं छ: अंगों में षड्चकों को लिया जाता है ! षड्चक्रों का भूमि से स्पर्श होना इन चक्रौं की सक्रियता और समन्वित एकाग्रता को इंगित करता है ! एक साथ संपूर्ण शरीर के षड्चक्रों का स्पर्श होना, संपूर्ण एकाग्रता, पूर्ण समर्पण और पूर्ण श्रद्धा का प्रमाण है !!
दंडवत प्रणाम में व्यक्ति सब कुछ भूलकर केवल अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पित हो जाता है ! दंडवत प्रणाम की मुद्रा में व्यक्ति सभी इंद्रियों (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँचों कर्मेद्रियाँ) को कछुए की भाँति समेटकर अपने श्रद्धेय को समर्पित होता है ! उसे ऎसा आभास होता है, कि अब आत्म निवेदन और मौन श्रद्धा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं करना !!
इसके विपरीत श्रद्धेय जब अपने प्रेय (दंडवत प्रणाम करने वाला) को दंडवत मुद्रा में देखता है, तो स्वत: ही उसके मनोविकार या किसी भी प्रकार की दूषित मानसिकता धुल जाती है ! और उसके पास रह जाता है, केवल त्याग, बलिदान या अर्पण ! वह अपने प्रियपात्र के हित में सब कुछ लुटाने को लालायित हो उठता है ! सब कुछ देने को तैयार हो जाता है, उसकी रक्षा के लिए कुछ भी बलिदान या त्याग करने को तैयार हो जाता है ! यहाँ पर श्रेय और प्रेय दोनों ही पराकाष्ठा का समन्वय दंडवत प्रणाम के माध्यम से किया गया है !!
अभिवादन की "दंडवत प्रणाम" मुद्रा में व्यक्ति के पूर्ण समर्पण भाव से मांगने और पूर्ण उदार भाव से देने की प्रक्रिया को व्यावहारिक बनाया गया है ! दंडवत प्रणाम की मुद्रा की तुलना हम मगरमच्छ की उस मुद्रा से कर सकते हैं, जब वह जल से बाहर निकलकर दंडवत प्रणाम की मुद्रा में भूमि पर लेट जाता है, और अधिकतम सूर्य किरणों का अवशोषण निश्चल, निर्बाध, निर्विकार और स्थिर मुद्रा में रहकर करता है ! यहाँ तक कि अपनी साँसों की गति भी अत्यंत धीमी कर देता है, और दंडवत की इस मुद्रा में वह सूर्य भगवान की रश्मियों से इतनी अधिक ऊर्जा प्राप्त कर लेता है, कि अपने शरीर से कई गुणा विशाल हाथी, भैंसे, शेर जैसे जीवों को भी दबोच लेता है !!
इतनी ऊर्जा मगरमच्छ को दंडवत प्रणाम मुद्रा में एकाग्र होकर सूर्य रश्मियों के निर्बाध सेवन से ही मिल सकी ! इस दृष्टांत से हम आसानी से समझ सकते हैं, कि दंडवत प्रणाम की मुद्रा में हम भी निर्विकार, निश्चल, निर्बाध, निर्विचार केवल श्रद्धेय की ऊर्जा शक्ति का स्वयं में आरोहण या प्रवेश करा रहे होते हैं ! और इसमें कोई संदेह नहीं, कि दंडवत प्रणाम करने के उपरांत व्यक्ति कई गुणी शक्ति और ऊर्जा से परिपूर्ण होकर उठता है !!
कई मंदिरों, तीर्थो या उपासना स्थलों पर दंडवत परिक्रमा करने की परंपराएँ बनाई गई हैं, उनके पीछे भी यही वैज्ञानिकता है, कि व्यक्ति निर्विकार भाव से वहां व्याप्त सकारात्मक विद्युत-चुबंकीय शक्ति को तेजी से आत्म-सात् करे, और उसमें संघर्ष करने, सहने तथा उत्साहित होकर कार्य करने की क्षमता विकसित हो जाए !!
अभिवादन की परंपराओं के अंतर्गत "दण्डवत प्रणाम" की मुद्रा सर्वोत्कृष्ट श्रेणी की श्रद्धा मानी जाती है ! संतजन, योगीजन इसे सहर्ष स्वीकार कर तत्काल वरदान देने की मानसिकता में आ जाते हैं ! प्रसंगवश यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा, कि यदि कोई शिष्य अपने गुरू के समक्ष चरण स्पर्श या दंडवत प्रणाम नहीं करता है, तो उसमें से विवेक शक्ति का ह्रास होने लगता है !!
अर्थात् जिनमें देने की शक्ति होती है, उनमें अपने संकल्प के बल पर लेने की शक्ति भी स्वत: विद्यमान रहती है, जो अनायास है, प्रतिकूल कार्य करने को विवश हो जाती है !!
इस लेख के माध्यम से हम अपने मित्रों तक केवल नमस्कार, चरण स्पर्श और दंडवत प्रणाम की गर्भित वैज्ञानिकता एवं सामाजिक अनिवार्यता पर ही प्रकाश डाल रहे हैं ! गुरू चरण सेवा, गुरू चरण स्पर्श, गुरू चरण पूजा, गुरू चरण वंदन, गुरू चरण स्तवन आदि अलग विषय हैं, जिनमें गुरू की रहस्यात्मक शक्तियों का शिष्य में सन्निपात होने के रहस्यों का उद्घाटन किया जाता है !!
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नमस्कार, चरण स्पर्श और दंडवत प्रणाम की इस शास्त्रोक्त मींमासा में हमारा निवेदन है, कि उत्तरोत्तर अधिक उर्जावान बनने के लिए, क्रमश: नमस्कार, चरण स्पर्श और दंडवत प्रणाम की मुद्राएँ हम परंपरा स्वरूप ग्रहण एवं प्रयुक्त करते हैं !!
!!! नमों नारायण !!!
Swami Shri Dhananjay ji Maharaj.दंडवत प्रणाम भारत में ऎसी परंपरा है, जिसमें अभिवादन की पराकाष्ठा है ! यदि इस मानव शरीर से किसी व्यक्ति, मूर्ति या देवता का अभिवादन या उसके प्रति श्रद्धा का अर्पण पूर्ण मनोयोग से किया जाए, तो उसकी मुद्रा दंडवत प्रणाम ही हो सकती है !!
शास्त्रों में दंडवत प्रणाम को "साष्टांग प्रणाम" भी कहा जाता है ! प्राचीनकाल में "दंड" सीधे बाँस को कहा जाता था, और जब इस बाँस को भूमि पर समतल रख दिया जाए, तो वह मुद्रा "दण्डवत" हो जाती है ! जब शरीर को इसी अवस्था में मुंह के बल भूमि पर लिटा दिया जाए, तो इसे दंडवत प्रणाम कहते हैं ! शरीर की इस मुद्रा में शरीर के छ: अंगों का भूमि से सीधा स्पर्श होता है ! अर्थात् शरीर मे स्थित छ: महामर्मो का स्पर्श भूमि से हो जाता है, जिन्हें वास्तुशास्त्र में "षण्महांति" या "छ:महामर्म" स्थान माना जाता है ! ये अंग वास्तुपुरूष के महामर्म इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि ये शरीर (प्लॉट) के अतिसंवेदनशील अंग होते हैं !!
योगशास्त्र में इन्हीं छ: अंगों में षड्चकों को लिया जाता है ! षड्चक्रों का भूमि से स्पर्श होना इन चक्रौं की सक्रियता और समन्वित एकाग्रता को इंगित करता है ! एक साथ संपूर्ण शरीर के षड्चक्रों का स्पर्श होना, संपूर्ण एकाग्रता, पूर्ण समर्पण और पूर्ण श्रद्धा का प्रमाण है !!
दंडवत प्रणाम में व्यक्ति सब कुछ भूलकर केवल अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पित हो जाता है ! दंडवत प्रणाम की मुद्रा में व्यक्ति सभी इंद्रियों (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँचों कर्मेद्रियाँ) को कछुए की भाँति समेटकर अपने श्रद्धेय को समर्पित होता है ! उसे ऎसा आभास होता है, कि अब आत्म निवेदन और मौन श्रद्धा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं करना !!
इसके विपरीत श्रद्धेय जब अपने प्रेय (दंडवत प्रणाम करने वाला) को दंडवत मुद्रा में देखता है, तो स्वत: ही उसके मनोविकार या किसी भी प्रकार की दूषित मानसिकता धुल जाती है ! और उसके पास रह जाता है, केवल त्याग, बलिदान या अर्पण ! वह अपने प्रियपात्र के हित में सब कुछ लुटाने को लालायित हो उठता है ! सब कुछ देने को तैयार हो जाता है, उसकी रक्षा के लिए कुछ भी बलिदान या त्याग करने को तैयार हो जाता है ! यहाँ पर श्रेय और प्रेय दोनों ही पराकाष्ठा का समन्वय दंडवत प्रणाम के माध्यम से किया गया है !!
अभिवादन की "दंडवत प्रणाम" मुद्रा में व्यक्ति के पूर्ण समर्पण भाव से मांगने और पूर्ण उदार भाव से देने की प्रक्रिया को व्यावहारिक बनाया गया है ! दंडवत प्रणाम की मुद्रा की तुलना हम मगरमच्छ की उस मुद्रा से कर सकते हैं, जब वह जल से बाहर निकलकर दंडवत प्रणाम की मुद्रा में भूमि पर लेट जाता है, और अधिकतम सूर्य किरणों का अवशोषण निश्चल, निर्बाध, निर्विकार और स्थिर मुद्रा में रहकर करता है ! यहाँ तक कि अपनी साँसों की गति भी अत्यंत धीमी कर देता है, और दंडवत की इस मुद्रा में वह सूर्य भगवान की रश्मियों से इतनी अधिक ऊर्जा प्राप्त कर लेता है, कि अपने शरीर से कई गुणा विशाल हाथी, भैंसे, शेर जैसे जीवों को भी दबोच लेता है !!
इतनी ऊर्जा मगरमच्छ को दंडवत प्रणाम मुद्रा में एकाग्र होकर सूर्य रश्मियों के निर्बाध सेवन से ही मिल सकी ! इस दृष्टांत से हम आसानी से समझ सकते हैं, कि दंडवत प्रणाम की मुद्रा में हम भी निर्विकार, निश्चल, निर्बाध, निर्विचार केवल श्रद्धेय की ऊर्जा शक्ति का स्वयं में आरोहण या प्रवेश करा रहे होते हैं ! और इसमें कोई संदेह नहीं, कि दंडवत प्रणाम करने के उपरांत व्यक्ति कई गुणी शक्ति और ऊर्जा से परिपूर्ण होकर उठता है !!
कई मंदिरों, तीर्थो या उपासना स्थलों पर दंडवत परिक्रमा करने की परंपराएँ बनाई गई हैं, उनके पीछे भी यही वैज्ञानिकता है, कि व्यक्ति निर्विकार भाव से वहां व्याप्त सकारात्मक विद्युत-चुबंकीय शक्ति को तेजी से आत्म-सात् करे, और उसमें संघर्ष करने, सहने तथा उत्साहित होकर कार्य करने की क्षमता विकसित हो जाए !!
अभिवादन की परंपराओं के अंतर्गत "दण्डवत प्रणाम" की मुद्रा सर्वोत्कृष्ट श्रेणी की श्रद्धा मानी जाती है ! संतजन, योगीजन इसे सहर्ष स्वीकार कर तत्काल वरदान देने की मानसिकता में आ जाते हैं ! प्रसंगवश यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा, कि यदि कोई शिष्य अपने गुरू के समक्ष चरण स्पर्श या दंडवत प्रणाम नहीं करता है, तो उसमें से विवेक शक्ति का ह्रास होने लगता है !!
अर्थात् जिनमें देने की शक्ति होती है, उनमें अपने संकल्प के बल पर लेने की शक्ति भी स्वत: विद्यमान रहती है, जो अनायास है, प्रतिकूल कार्य करने को विवश हो जाती है !!
इस लेख के माध्यम से हम अपने मित्रों तक केवल नमस्कार, चरण स्पर्श और दंडवत प्रणाम की गर्भित वैज्ञानिकता एवं सामाजिक अनिवार्यता पर ही प्रकाश डाल रहे हैं ! गुरू चरण सेवा, गुरू चरण स्पर्श, गुरू चरण पूजा, गुरू चरण वंदन, गुरू चरण स्तवन आदि अलग विषय हैं, जिनमें गुरू की रहस्यात्मक शक्तियों का शिष्य में सन्निपात होने के रहस्यों का उद्घाटन किया जाता है !!
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!!! नमों नारायण !!!
स्वामीजी मैंने एक मेल में पढ़ा था कि, वराह पुराण में ऐसा लिखा है -
ReplyDeleteवस्त्र आवृत देहास्तु यो नरः प्रनमेत मम |
श्विस्त्री सा जायते मूर्ख सप्त जन्मनि भामिनी ||
कृपया शंका का निवारण कीजिये |
प्रभू जी,
ReplyDeleteये श्विस्त्री क्या है ?
दूसरी बात है, की ये बात सही है, की वस्त्र धारण करके साष्टांग नहीं करना चाहिए, लेकिन गीता के अनुसार -
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते !!
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् !!
अर्थ : इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है, और उलटा फलरूप दोष भी नहीं होता है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है !! अ. २. श्लोक ४०.
अर्थात धर्म का कार्य कैसे भी हो, उसमे उल्टा दोष नहीं होता, अपितु, थोडा सा किया गया धर्म का कार्य, कभी-कभी महान भय से रक्षा कर देता है !!
तो वस्त्र पहनें हों, अथवा वस्त्र ना पहन कर, साष्टांग तो भगवान को ही कर रहा है न ? तथा गीता के अनुसार दोष होगा नहीं, और जब दोष नहीं होगा, तो फिर एक ही बात बचती है, और वो है, लाभ !!
हां स्त्रियों को साष्टांग नहीं करना चाहिए, ये बात मुझे मालूम है, मेरे गुरूजी ने बताया था, गुरुकुल में ही, और तब से ये बात मुझे याद है !!!
!!! नमों नारायण !!!
Shanka ka nivaran kare -
ReplyDeleteKya striyo ko yaag me ahuti dene ka adhikar he??
Kya striya ShivLingarchan kar sakti he????
Vartaman me striya gayatri yaag karvati he or pata nahi kis jati varn ki he or kai bate he.. Lekin kya yah sab sahi he ????
Please Acharyaji muje SahShlok praman se avagat kare
पंड्या जी,
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण,
१.स्त्रियों को पूर्ण अधिकार है, यज्ञ में आहुति देने का, क्योंकि - बिना पत्नीं कथं धर्म, आश्रमाणाम प्रवर्तते ! गृहस्थ आश्रम में पत्नी के बिना किसी भी धार्मिक कार्य को अधुरा ही माना गया है ! स्पेसली अकेली कोई स्त्री यज्ञ नहीं कर सकती, लेकिन अपने पति के साथ समस्त धार्मिक कृत्यों को करने का सम्पूर्ण अधिकार है !!
२.जी स्त्रियों को शिव लिंग की पूजा अर्चा के लिए कहीं कोई रोक नहीं है, और जब कोई रोक नहीं है, तो फिर कर सकती है !!
३.शास्त्रानुसार सभी वर्णों के कर्म निर्धारित किए गए हैं, और अपनी मर्यादा को बनाये रखना प्रथम धर्म है ! कोई अपनी मर्यादा को तोड़ता है, तो वहीँ से अनीति का आरम्भ हो जाता है, फिर धर्म कैसा ? सभी वर्णों के कर्मों का निर्धारण बहुत ही विचार करने के उपरांत निर्धारित किए गए हैं ! क्योंकि एक समाज को सुचारू रूप से संचालित रखने हेतु, हर तरह के कार्य को करने की आवश्यकता होती है ! और सभी सभी तरह के कार्य को नहीं कर सकते ! अत: समाज को सुचारू रूप से चलाने हेतु, सभी वर्णों की मर्यादा का होना अनिवार्य है !!!
!!!! नमों नारायण !!!!