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Free Bhagwat Katha; फ्री भागवत कथा !!!


जय श्रीमन्नारायण,
Swami Dhananjay Maharaj
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एक बार कि बात है, कि धर्म बैल के रुप में, और पृथ्वी गाय के रूप में एक जगह एक साथ खड़े होकर बातें कर रहे थे ! वृषभ रूपी धर्म, गाय रूपी पृथ्वी से उसके शोक का कारण पूछता है !!!



तब पृथ्वी कहती है:-- हे धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान् के सहारे तुम सारे संसार को सुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणों से युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, संतोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कांति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता---ये उन्तालिश अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषों के द्वारा वांछनीय ( शरणागतवत्सलता आदि ) और भी बहुत-से महान गुण उनकी सेवा करने के लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षण के लिये भी उनसे अलग नहीं होते--- उन्हीं समस्त गुणों के आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान् श्रीकृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ।।25-30।।
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अपने लिये, देवताओं में श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमों के मनुष्यों के लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ।।31।।    

जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान् के शरणागत होकर बहुत दिनोंतक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मीजी अपने निवासस्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरणकमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान् के कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि चिन्हों से युक्त श्रीचरणों से विभूषित होने के कारण मुझे महान वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकों से बढ़कर शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्य का अब अन्त हो गया ! भगवान् ने मुझ अभागिनी को छोड़ दिया ! मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्य पर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ।।32-33।।

तुम अपने तीन चरणों के कम हो जाने से मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अतः अपने पुरुषार्थ से तुम्हें अपने ही अन्दर पुनः सब अंगों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रह से यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतंत्र थे ।।34।।     
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जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मनिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरणकमलों के स्पर्श से मैं निरन्तर आनन्द से पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का विरह भला कौन सह सकती है ।।35।।     

धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे, कि उसी समय राजर्षि परीक्षित पूर्ववाहिनी सरस्वती के तटपर आ पहुँचे ।।36।।

सूतजी कहते हैं---- शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित ने देखा की एक राजवेषधारी व्यक्ति, शुद्र (उद्दण्ड) के समान हाथ में डंडा लिये हुए है, और गाय-बैल के एक जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।।1।।

वह कमलतन्तु के समान श्वेत रंग का बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था, तथा उस (उद्दण्ड) की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ।।2।।
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धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देनेवाली वह गाय भी बार-बार उस (उद्दण्ड) के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दुसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख भी लगी हुई थी, और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ।।3।।

स्वर्णजटित रथपर चढ़े हुए राजा परीक्षित ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ।।4।।

अरे ! तू कौन है, जो बलवान होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नट की भाँति वेश तो राजा का -सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शुद्र (उद्दण्ड) जान पड़ता है ।।5।।

हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थान में निरपराधों पर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वध के योग्य है ।।6।।

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उन्होंने धर्म से पूछा -- कमल-नाल के समान आपका श्वेतवर्ण  है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं, अथवा स्वयं धर्म ही हैं ?

अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।।8।।

हे धेनुपुत्र ! अब आप शोक न करें। इस शुद्र (उद्दण्ड) से निर्भय हो जाये। गोमाता ! मैं दुष्टों को दण्ड  देनेवाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ।।9।।

देवी ! जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से सारी प्रजा त्रस्त रहती है, उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक सभी नष्ट हो जाते हैं ।।10।।
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राजाओं का परम धर्म ही यही है, कि वे दुःखियों का दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करनेवाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा ।।11।।

सुरभिनन्दन ! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्ण के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो ।।12।।

वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है? ।।13।।

जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ।।14।।

जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा ।।15।।
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बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लंघन करनेवालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ।।16।।

धर्म ने कहा ----- राजन ! आप महाराज पाण्डु के वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियों को आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ।।17।।


तात्पर्य यह है, कि जिस देश के राजा अपने कर्तब्य कर्म से च्युत हो जाएँ, उस देश के विद्वानों का कर्तब्य है, कि उन्हें सच्चे पथ पर चलने कि प्रेरणा दें, अन्यथा उस देश का भविष्य खतरे में होगा !!!

दुष्टों के प्रतिघात से जब धर्म आहत हो जाय, उसके पालक अर्थात धर्माचरण न्यून हो जाय, तो आनेवाली पीढ़ी के संस्कार समाप्त हो जाते हैं, और लगभग वनचर हो जाते हैं लोग !!!
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इसे रोकने के लिए हमें संकल्पबद्ध होना पड़ेगा, और ज्यादा से ज्यादा धार्मिक प्रसंगों का आयोजन कराना होगा, ताकि मनुष्य मात्र को, कुत्सित वृत्तियों से बचाया जा सके !!!!


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!!!! नारायण सभी का कल्याण करें, विश्व का कल्याण हो !!!!

2 comments:

  1. ईश्वरीय कार्य !

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  2. नमों नारायण भगवन नमों नारायण !!!!

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