अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा - Sansthanam.
श्रीमद्भगवद्गीता - अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग ।।।
(अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा)
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।२५।।
अर्थ:- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ।।२५।।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम् ।।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।२६।।
अर्थ:- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए ।।२६।।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।२७।।
अर्थ:- वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है ।।२७।।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।२८।।
अर्थ:- परन्तु हे महाबाहो ! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ।।२८।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।२९।।
अर्थ:- प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ।।२९।।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।३०।।
अर्थ:- मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर तूं युद्ध कर ।।३०।।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।।३१।।
अर्थ:- जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं ।।३१।।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।।३२।।
अर्थ:- परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ।।३२।।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।।३३।।
अर्थ:- सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं । ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है । फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ।।३३।।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३४।।
अर्थ:- इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं ।।३४।।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३५।।
अर्थ:- अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है । अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ।।३५।।
स्वामी धनञ्जय महाराज. http://www.sansthanam.com/
(अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा)
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।२५।।
अर्थ:- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ।।२५।।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम् ।।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।२६।।
अर्थ:- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए ।।२६।।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।२७।।
अर्थ:- वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है ।।२७।।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।२८।।
अर्थ:- परन्तु हे महाबाहो ! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ।।२८।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।२९।।
अर्थ:- प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ।।२९।।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।३०।।
अर्थ:- मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर तूं युद्ध कर ।।३०।।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।।३१।।
अर्थ:- जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं ।।३१।।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।।३२।।
अर्थ:- परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ।।३२।।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।।३३।।
अर्थ:- सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं । ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है । फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ।।३३।।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३४।।
अर्थ:- इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं ।।३४।।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३५।।
अर्थ:- अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है । अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ।।३५।।
भगवान नारायण और माता महालक्ष्मी सभी का नित्य कल्याण करें ।।
मित्रों, नित्य नवीन सत्संग हेतु कृपया इस पेज को लाइक करें -www.facebook.com/swamidhananjaymaharaj
www.dhananjaymaharaj.com
www.sansthanam.com
www.dhananjaymaharaj.blogspot.in
www.sansthanam.blogspot.in
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।
।। नमों नारायण ।।
मित्रों, नित्य नवीन सत्संग हेतु कृपया इस पेज को लाइक करें -www.facebook.com/swamidhananjaymaharaj
www.dhananjaymaharaj.com
www.sansthanam.com
www.dhananjaymaharaj.blogspot.in
www.sansthanam.blogspot.in
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।
।। नमों नारायण ।।
No comments
Note: Only a member of this blog may post a comment.