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द्वितीय स्कन्धः ।। अथ दशमोऽध्यायः।। BHAGWAT PURAN.


।। श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।  ।। श्रीमद्भागवत महापुराणम् ।।
।। द्वितीय स्कन्धः ।।  ।। अथ दशमोऽध्यायः ।।

श्रीशुक उवाच
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः 1

श्रीशुकदेवजी कहते हैं --- परीक्षित ! इस भागवत पुराण में सर्ग , विसर्ग,स्थान,पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा,निरोध, मुक्ति और आश्रय --- इन दस विषयों  का वर्णन है ॥1॥

दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम्
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा 2

इनमें जो दसवाँ आश्रय -तत्त्व है , उसी का ठीक -ठीक निश्चय करने के लिए कहीं श्रुति से, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से मह्त्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीती से वर्णन किया हैं ॥2॥

भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृतः
ब्रह्मणो गुणवैषम्याद्विसर्गः पौरुषः स्मृतः 3

ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पंचभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है, उसको 'सर्ग' कहते हैं। उस विराट पुरुष से उत्पन्न ब्रह्माजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम है 'विसर्ग' ॥3॥

स्थितिर्वैकुण्ठविजयः पोषणं तदनुग्रहः
मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः 4

प्रतिपद नाश की ओर बढ़नेवाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम 'स्थान' हैं। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तों के ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम हैं 'पोषण'। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजापालनरूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे 'मन्वन्तर' कहते हैं। जीवों को वे वासनाएँ, जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, 'ऊति' नाम से कही जाती हैं ॥4॥

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम्
पुंसामीशकथाः प्रोक्ता नानाख्यानोपबृंहिताः 5

भगवान् के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ 'ईशकथा' हैं ॥5॥

निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः
मुक्तिर्हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः 6

जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीवका अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना 'निरोध' है। अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा में स्थित होना ही 'मुक्ति' हैं ॥6॥

आभासश्च निरोधश्च यतोऽस्त्यध्यवसीयते
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते 7

परीक्षित ! इस चराचर जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रह्म ही आश्रय' हैं। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है ॥7॥

योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसावेवाधिदैविकः
यस्तत्रोभयविच्छेदः पुरुषो ह्याधिभौतिकः 8

जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव हैं, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवता सूर्य आदि के रूप में भी है और जो नेत्रगोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग -अलग करता है ॥ 8॥

एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः 9

इन तीनों में यदि एकका भी अभाव हो जाय तो दूसरे दोकी उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान 'आश्रय' तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं॥9॥

पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गतः
आत्मनोऽयनमन्विच्छन्नपोऽस्राक्षीच्छुचिः शुचीः 10

जब पूर्वोक्त विराट पुरुष ब्रह्माण्ड को फोड़कर निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध -संकल्प पुरुष ने  अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की ॥10॥

तास्ववात्सीत्स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान्
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः 11

विरद पुरुषरूप 'नर' पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए 'नार' में वह पुरुष एक हज़ार वर्षों तक रहा, इसी से उसका नाम 'नारायण' हुआ ॥11॥

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया 12

उन नारायणभगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वाभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता ॥12॥

एको नानात्वमन्विच्छन्योगतल्पात्समुत्थितः
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत्त्रिधा 13
अधिदैवमथाध्यात्ममधिभूतमिति प्रभुः
अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधाभिद्यत तच्छृणु 14

उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रह्माण्ड के बीजस्वरुप अपने सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ॥13-14॥

अन्तः शरीर आकाशात्पुरुषस्य विचेष्टतः
ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महानसुः 15

विराट पुरुष के हिलने -डोलने पर उनके शरीर में रहनेवाले आकाश से इन्द्रियबल , मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ॥15॥

अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु
अपानन्तमपानन्ति नरदेवमिवानुगाः 16

जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे -पीछे चलते रहते हैं , वैसे ही सबके शरीरों में प्राण के प्रबल रहनेपर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं ॥16॥

प्राणेनाक्षिपता क्षुत्तृडन्तरा जायते विभोः
पिपासतो जक्षतश्च प्राङ्मुखं निरभिद्यत 17

जब प्राण जोर से आने -जाने लगा , तब विराट पुरुष को भूख -प्यास अनुभव हुआ। खाने -पीने को इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ ॥ 17॥

मुखतस्तालु निर्भिन्नंजिह्वा तत्रोपजायते
ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते 18

मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार के रस उत्पन्न हुए जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥18॥
विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग्व्याहृतं तयोः
जले चैतस्य सुचिरं निरोधः समजायत 19

जब उनकी इच्छा बोलने की हुई तब वाक् -इन्द्रिय , उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि और उनका विषय बोलना --- ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में ही वे रुके रहे ॥19॥

नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति
तत्र वायुर्गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः 20

श्वास के वेग से नासिका -छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलानेवाले वायुवेग प्रकट हुए॥20॥

यदात्मनि निरालोकमात्मानं च दिदृक्षतः
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिश्चक्षुर्गुणग्रहः 21

पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को देखनेकी इच्छा हुई, तब नेत्रों के छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हीं से रूप का ग्रहण होने लगा॥21॥

बोध्यमानस्य ऋषिभिरात्मनस्तज्जिघृक्षतः
कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः 22

जब वेदरूप ऋषि विराट पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे,तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृदेवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसी से शब्द सुनायी पड़ता है ॥22॥

वस्तुनो मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्णशीतताम्
जिघृक्षतस्त्वङ्निर्भिन्ना तस्यां रोममहीरुहाः
तत्र चान्तर्बहिर्वातस्त्वचा लब्धगुणो वृतः 23

जब उन्हें वस्तुओं की कोमलता,कठिनता,हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वी में जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर -बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा -इन्द्रिय भी साथ -ही-साथ शरीर में चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्श का अनुभव होने लगा ॥23॥

हस्तौ रुरुहतुस्तस्य नानाकर्मचिकीर्षया
तयोस्तु बलवानिन्द्र आदानमुभयाश्रयम् 24

जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों आश्रय से होनेवाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट हो गया ॥24॥

गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम्
पद्भ्यां यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः 25

जब उन्हें अभीष्ट स्थानपर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणों के साथ ही चरण -इन्द्रिय के अधिष्ठातारूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हीं में चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ -सामग्री एकत्र करते हैं॥ 25॥

निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्दामृतार्थिनः
उपस्थ आसीत्कामानां प्रियं तदुभयाश्रयम् 26

सन्तान, रति और स्वर्ग -भोग की कामना होनेपर विराट पुरुष के शरीर में लिंग की उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहनेवाले कामसुख का आविर्भाव हुआ ॥26॥

उत्सिसृक्षोर्धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम्
ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः 27

जब उन्हें मलत्याग की इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात उसमें पायु -इन्द्रिय और मित्र -देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनों के द्वारा मलत्याग की क्रिया सम्पन्न होती है ॥27॥

आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारमपानतः
तत्रापानस्ततो मृत्युः पृथक्त्वमुभयाश्रयम् 28

अपानमार्गद्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने पर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी मृत्यु होती है॥28॥

आदित्सोरन्नपानानामासन्कुक्ष्यन्त्रनाडयः
नद्यः समुद्राश्च तयोस्तुष्टिः पुष्टिस्तदाश्रये 29

जब विराट पुरुष को अन्न -जल ग्रहण करने की इच्छा हुई , तब कोख,आँतें और नाडियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि --- ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए॥29॥

निदिध्यासोरात्ममायां हृदयं निरभिद्यत
ततो मनश्चन्द्र इति सङ्कल्पः काम एव च 30

जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना चाहा, जब हृदय की उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय,कामना और संकल्प प्रकट हुए ॥30॥

त्वक्चर्ममांसरुधिर मेदोमज्जास्थिधातवः
भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमाम्बुवायुभिः 31

विराट पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं --- त्वचा ,चर्म,मांस,रुधिर,मेद,मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश,जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई ॥31॥

गुणात्मकानीन्द्रियाणि भूतादिप्रभवा गुणाः
मनः सर्वविकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी 32

श्रोतादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध करानेवाली है॥32॥

एतद्भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया
मह्यादिभिश्चावरणैरष्टभिर्बहिरावृतम् 33

मैंने भगवान् के इस स्थूलरूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है।यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु,आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति --- इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है ॥33॥

अतः परं सूक्ष्मतममव्यक्तं निर्विशेषणम्
अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ्मनसः परम् 34

इससे परे भगवान् का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन की वहाँ तक पहुँच नहीं है ॥34॥

अमुनी भगवद्रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः 35

मैंने तुम्हे भगवान के स्थूल और सूक्ष्म ---व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान पुरुष इन दोनों की ही स्वीकार नहीं करते ॥35॥

स वाच्यवाचकतया भगवान्ब्रह्मरूपधृक्
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः 36

वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्माका या विराटरूप धारण करके वाच्य और वाचक --- शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम,रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥36॥

प्रजापतीन्मनून्देवानृषीन्पितृगणान्पृथक्
सिद्धचारणगन्धर्वान्विद्याध्रासुरगुह्यकान् 37
किन्नराप्सरसो नागान्सर्पान्किम्पुरुषान्नरान्
मात्रक्षःपिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान् 38
कूष्माण्डोन्मादवेतालान्यातुधानान्ग्रहानपि
खगान्मृगान्पशून्वृक्षान्गिरीन्नृप सरीसृपान् 39

परीक्षित ! प्रजापति , मनु,देवता,ऋषि,पितर, सिद्ध,चारण, गन्धर्व, विद्याधर,असुर,यक्ष,किन्नर, अप्सराएँ, नाग,सर्प,किम्पुरुष, उरग,मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच,प्रेत,भूत, विनायक,कुष्माण्ड, उन्माद,वेताल,यातुधान,ग्रह, पक्षी, मृग,पशु,वृक्ष,पर्वत,सरीसृप, इत्यादि जितने भी संसार में नाम -रूप हैं, सब भगवान् के ही हैं ॥37-39॥

द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जलस्थलनभौकसः
कुशलाकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः 40

संसार में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज,स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी है, सब -के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं ॥ 40॥

सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुरनृनारकाः
तत्राप्येकैकशो राजन्भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा
यदैकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते 41

सत्त्व की प्रधानता से देवता,रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दुसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गति के तीन -तीन भेद और हो जाते हैं ॥ 41॥

स एवेदं जगद्धाता भगवान्धर्मरूपधृक्
पुष्णाति स्थापयन्विश्वं तिर्यङ्नरसुरादिभिः 42

वे भगवान् जगत के धारण -पोषण के लिए धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता,मनुष्य और पशु,पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन -पोषण करते हैं ॥ 42॥

ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टमिदमात्मनः
सन्नियच्छति तत्काले घनानीकमिवानिलः 43

प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरूप रूद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते है, जैसे वायु मेघमाला की ॥43॥

इत्थम्भावेन कथितो भगवान्भगवत्तमः
नेत्थम्भावेन हि परं द्रष्टुमर्हन्ति सूरयः 44

परीक्षित ! महात्माओं ने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषों की केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं ॥44॥

नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् 45

सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृव्य का निषेध करने के लिये ही है ॥45॥

अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः
विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः 46

यह मैंने ब्रह्माजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में सृष्टि -क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तोकेवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में प्रकृति से क्रमशः महत्तत्त्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में ही प्रकृति सृष्टि तो ज्यों -की-त्यों रहती ही है , चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है ॥46॥

परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षणविग्रहम्
यथा पुरस्ताद्व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो शृणु 47

परीक्षित ! काल का परिमाण , कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पद्मकल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो ॥47॥

शौनक उवाच
यदाह नो भवान्सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः
चचार तीर्थानि भुवस्त्यक्त्वा बन्धून्सुदुस्त्यजान् 48

शौनकजी ने पूछा --- सूतजी ! आपने हमलोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोड़कर पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण किया था ॥48॥

क्षत्तुः कौशारवेस्तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः
यद्वा स भगवांस्तस्मै पृष्टस्तत्त्वमुवाच ह 49

उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेय जी ने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्व का उपदेश किया? ॥49॥

ब्रूहि नस्तदिदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम्
बन्धुत्यागनिमित्तं च यथैवागतवान्पुनः 50

सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई -बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ? ॥50॥

सूत उवाच
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यदवोचन्महामुनिः
तद्वोऽभिधास्ये शृणुत राअज्ञः प्रश्नानुसारतः 51

सूतजी ने कहा --- शौनकादि ऋषियों १ राजा परीक्षित ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥51॥

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