Breaking News

आदित्य क्या हैं ? वैदिक प्रमाण के साथ ।। Sansthanam.

जय श्रीमन्नारायण,  

        भागवत में जिन आदित्यों का वर्णन है, आइये इस विषय को अन्य शास्त्रों में ढूंढने का प्रयास करें
आदित्य आदित्य अदिति के पुत्र हैं । यह आदान का काम करते हैं विषयों का आदान करने वाले प्राण । ये आदान करके सबको विज्ञानमय कोश में डालते रहते हैं । वेद में सात या आठ आदित्य वर्णित हैं जबकि पुराणों में १२ हैं । वेद में आदित्य शब्द के कुछ सूक्ष्म भेद हैं ।
      पहले बाहर से कान, नाक, आंख आदि से शक्ति का आदान करने वाले प्राण आदित्यासः कहे जाते हैं । चित्तवृत्तियों का निरोध करने पर, चित्त को अन्दर की तरफ ले जाने पर आदित्यासः आदित्याः हो जाते हैं । फिर यह आदान अन्दर करते हैं । अन्त में केवल एक आदित्य रह जाता है ।।

आदित्यों के सम्बन्ध में जो प्रमाण मिलता है, उसकी पुष्टि पुराणों के इस कथन से होती है कि चाक्षुष मन्वन्तर के तुषित देव वैवस्वत मन्वन्तर में १२ आदित्य बने । प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, चक्षु, श्रोत्र, रस, घ्राण, स्पर्श, बुद्धि और मन यह १२ तुषित देव हैं ( ब्रह्माण्ड पुराण २.३.३.२०)।
         वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आदित्य शब्द की निरुक्ति आदान करने वाले के रूप में की गई है ( जैसे शतपथ ब्राह्मण ११.६.३.८)। यह भूतों से किस
किस गुण का आदान करते हैं, इसका विस्तार जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ तथा ३.३५८ में किया गया है जैसे नक्षत्रों से क्षत्र का, अन्तरिक्ष से आत्मा का, वायु से रूप का, मनुष्यों से आज्ञा का, पशुओं से चक्ष का, आपः से ऊर्जा का, ओषधियों से रस का इत्यादि ।।

        आदित्यों का जन्म अदिति द्वारा ब्रह्मौदन उच्छिष्ट भाग के भक्षण से होता है (तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.९.१ इत्यादि)। ओदन उदान प्राण का रूप है । अतः उदान प्राण के सूक्ष्म भाग के विकास से आदित्यों का जन्म होता है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.६ में कूर्म को आदित्य कहा गया है । कूर्म भी उदान प्राण का एक रूप है ।
         पुराणों में हारीत
पुत्र कमठ बालक के समक्ष आदित्य के प्राकट्य का वर्णन किया गया है । कमठ का अर्थ भी कूर्म होता है । अथर्ववेद १८.४.८ में उल्लेख है कि आदित्यों का अयन गार्हपत्य अग्नि है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.२.२१ के अनुसार गार्हपत्य अग्नि उदान प्राण है । लेकिन यहां आहवनीय अग्नि को आदित्य कहा गया है । ऐसा संभव है कि गार्हपत्य अग्नि के स्तर पर जो आदित्य समूह में थे, आहवनीय अग्नि के स्तर पर वह केवल एक आदित्य रह जाए । तैत्तिरीय ब्राह्मण १..१.६.३ में शुचि अग्नि को आदित्य कहा गया है ।।

        आदित्य अग्नि का ही एक रूप है । शतपथ ब्राह्मण १०.६.२.११ के अनुसार प्राण द्वारा अग्नि का दीपन होता है, अग्नि से वायु का, वायु से आदित्य का, आदित्य से चन्द्रमा का, चन्द्रमा से नक्षत्रों का और नक्षत्रों से विद्युत का । ऐतरेय ब्राह्मण ८.२८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.१.११ में यह वर्णन थोड़े अन्तर से मिलता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.६.२ इत्यादि में उल्लेख है कि रात्रि में जो अग्नि दूर से ही दिखाई देती है, उसकी किरण भी उसमें स्थित आदित्य के कारण ही है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर ऐसी कल्पना की जा सकती है कि प्रकाश उत्पन्न होने से पूर्व की अवस्था, जिसे अवरक्त भाग कहते हैं, अग्नि की अवस्था है ।।


      साधना में प्रकाश के उत्पन्न होने के पश्चात् संवत्सर के १२ मासों के रूप में १२ उषाओं का उदय होने लगता है । शतपथ ब्राह्मण ११.६.३.८ के अनुसार संवत्सर के १२ मास ही आदित्य हैं । यह उल्लेखनीय है कि वैश्वानर अग्नि को भी संवत्सर का रूप कहा गया है(शतपथ ब्राह्मण ५.२.५.१५ इत्यादि)। वैश्वानर अग्नि और आदित्यों, दोनों का यज्ञ में स्थान तृतीय सवन में होता है 

             ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४ में उल्लेख है कि अग्नि में केवल वैश्वानर अग्नि रूप ही ऐसा है जिससे आदित्य का उदय हो सकता है । अथर्ववेद १३.१ से आरम्भ करके कुछ सूक्त रोहित आदित्य देवता के हैं। रोहित अर्थात् बीजावस्था का रोहण, क्रमशः उदय। अग्नि और आदित्य दोनों को ही रोहित कहा जाता है (शतपथ ब्राह्मण १४.२.१.२)। इनसे यजमान स्वर्ग को रोहण करता है ।

             ऐसा प्रतीत होता है कि साधना की पहली अवस्था में आदित्य उदित होकर रोहण करता है और दूसरी अवस्था में यह आकाश में परिक्रमा करता है (शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३६)। भौतिक रूप में तो आदित्य का उदय पूर्व में होकर पश्चिम में अस्त होता है । लेकिन साधना में यह चारों दिशाओं में उदित और अस्त होता है ।

              यह इसकी प्रदक्षिणा है। छान्दोग्य उपनिषद ३.६.१ में इन अवस्थाओं का वर्णन है। यह उदय
अस्त अवस्थाएं साधारण नहीं हैं। छान्दोग्य उपनिषद ३.१.१ तथा ३.६.१ इत्यादि के अनुसार यह आदित्य की मधुमती अवस्थाएं हैं । इनसे वेदों का जन्म होता है , इस अमृत के दर्शन मात्र से देवगण तृप्ति को प्राप्त होते हैं 

            जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.८.१.६ के अनुसार आदित्य का उदय अमृत से ही होता है और वह अमृत में ही संचरण करता है । ऋग्वेद १०.६३.३ तथा अथर्ववेद ९.१.४ के अनुसार आदित्यों की माता अदिति स्वयं मधुविद्या है और यह अपने पुत्रों को मधु रूपी दुग्ध का ही पान कराती है । पुराणों में मधुरादित्य का माहात्म्य इस दृष्टिकोण से विचारणीय है ।।

जारी है...... अगले अंक में कुछ और विशिष्ट ज्ञान के साथ.


No comments

Note: Only a member of this blog may post a comment.