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आदित्य क्या हैं ? वैदिक प्रमाण के साथ ।। SANSTHANAM. भाग - २.

जय श्रीमन्नारायण,

आदित्य क्या हैं ? वैदिक प्रमाण के साथ ।। SANSTHANAM.

             हाँ तो मित्रों, उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आइये हम आगे चलें....  छान्दोग्य उपनिषद ३.११.१ में आदित्यों की प्रदक्षिणा अवस्था के पश्चात् एक और अवस्था का उल्लेख है जब यह ऊर्ध्व दिशा में उदित होकर फिर न तो उदित होता है, न अस्त होता है, मध्य में ही स्थित रहता है । इस अवस्था का नाम श्लोक है । यह विचारणीय है कि क्या आदित्य की इसी अवस्था को विवस्वान कहते हैं ?

             वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से आदित्य को चक्षु से सम्बद्ध किया गया है । प्रश्नोपनिषद ३.८ में आदित्य को बाह्य प्राण कहा गया है जो चाक्षुष प्राण को ग्रहण करके उदित होता है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.२७ के अनुसार आदित्य देवों और मनुष्यों, दोनों का चक्षु है । शतपथ ८..१.२.१ के अनुसार आदित्य स्वयं में विश्वव्यचा है, अन्दर की ओर दर्शन करता है । लेकिन चक्षुओं में स्थित होने पर यह बाहर की ओर, जिसे सर्व कहते हैं, दर्शन करने वाला हो जाता है ।।

      वर्षा (आनन्द की ?) को चाक्षुष्य कहा गया है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में दक्षिण चक्षु को आदित्य तथा सव्य चक्षु को चन्द्रमा का रूप कहा गया है (उदाहरण के लिए अथर्ववेद १५.१८.२)। अथर्ववेद ८.२.१५ में सूर्य और चन्द्रमा को आदित्यद्वय कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १२.८.२.३६ के अनुसार चन्द्रमा प्रत्यक्ष रूप में आदित्य यजमान है । प्रश्नोपनिषद १.५ में आदित्य को प्राण और चन्द्रमा को परम अन्न कहा गया है जिसका भक्षण आदित्य करता है ।।

                 शतपथ ब्राह्मण १०.३.३.७ तथा जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.९.१.४ के अनुसार चक्षु आदित्य है जबकि मन चन्द्रमा है । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१२ के अनुसार आदित्य मन की ज्योति का रूप है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.८.३.२ के अनुसार चक्षु में पुरुष की प्रतिष्ठा है, आदित्य में अति पुरुष की और विद्युत में परमपुरुष की । चक्षु में स्थित पुरुष का नाम अनुरूप, आदित्य में प्रतिरूप और विद्युत में सर्वरूप है । यह विचारणीय है कि पौराणिक साहित्य में चाक्षुष मन्वन्तर के तुषित देवगण का वैवस्वत मन्वन्तर में आदित्य गण के रूप में जन्म होने के उल्लेख का उपरोक्त वर्णन से कितना तादात्म्य है ।।

             ऋग्वेद १.४१.५ तथा ८.२७.६ में आदित्यों के लिए नर विशेषण का प्रयोग हुआ है । अथर्ववेद १३.२.१ में आदित्य के लिए नृचक्षा अर्थात् नृ प्राणों के दर्शन करने वाले विशेषण का प्रयोग हुआ है । नर प्राण दिव्य प्राण होते हैं । शतपथ ब्राह्मण ९.३.१.३ में वर्णन है कि वैश्वानर शब्द के संदर्भ में यह पृथिवी विश्व है जिसमें अग्नि नर है । अन्तरिक्ष विश्व है जिसमें वायु नर है । द्यौ विश्व है जिसमें आदित्य नर है । शिर ही द्यौ है जिसमें केश नक्षत्रों का रूप हैं । उस द्यौ रूपी विश्व में चक्षु रूपी आदित्य नर स्थित है ।।

            जिस प्रकार भौतिक जगत में आदित्य द्यौ से नीचे स्थित रहता है, उसी प्रकार चक्षु शिर में नीचे स्थित हैं । पुराणों में अर्जुन द्वारा नरादित्य की स्थापना का वर्णन आता है । अथर्ववेद १३.३.२६ में अर्जुन कृष्ण रात्रि के वत्स के रूप में जन्म लेता है जो द्यौ में आरोहण करता है । यही स्थिति आदित्य की भी होती है ।।

         भविष्य पुराण ४.५८.४१ में पर्जन्य वृष्टि से अर्जुन होने का उल्लेख है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि नर आदित्य की स्थापना अर्जुन बन कर ही की जा सकती है । पुराणों में नरादित्य के साथ साथ केशवादित्य का भी वर्णन आता है । केश वपन करने वाले को केशव कहा जाता है और इस संदर्भ में अथर्ववेद ६.६८.१ का क्षुरिका सूक्त विचारणीय है ।।

             साम्ब द्वारा कुष्ठ प्राप्ति व आदित्य आराधना से कुष्ठ से मुक्ति की कथा का स्रोत अथर्ववेद १९.३९.५ का मन्त्र है । इस मन्त्र के अनुसार तीन शाम्बों, अंगिराओं, तीन आदित्यों और तीन बार विश्वेदेवों से उत्पन्न होने पर कुष्ठ विश्वभेषज बन जाता है । साम्ब, शम्भु, शाम्भवी और शम्ब, इन शब्दों का मूल एक ही है । कण्ठ से लेकर मूर्द्धा तक का स्थान शाम्भव स्थान कहा जाता है ।।

           मण्डल ब्राह्मणोपनिषद व अद्वयतारकोपनिषद में शाम्भवी मुद्रा का विस्तृत वर्णन किया गया है । तालुमूल के ऊर्ध्वभाग में महाज्योति होती है जिसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियां प्राप्त होती हैं । निमेष उन्मेष से रहित अवस्था शाम्भवी मुद्रा कहलाती है । पहले अग्निमण्डल, उसके ऊपर सूर्यमण्डल, उसके बीच में सुधाचन्द्र मण्डल, उसके बीच में अखण्ड ब्रह्मतेजोमण्डल होता है । यही शाम्भवी लक्षण है ।।

             साम्ब द्वारा नारद को जरा प्राप्ति का शाप व नारद द्वारा नारदादित्य की स्थापना के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.९.१, २.१४.१ तथा २.२०.१ इत्यादि में आदित्य व चन्द्रमा की उदय के पूर्व व पश्चात् की स्थितियों का साम भक्ति के हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ व प्रतिहार आदि से सम्बन्ध उल्लेखनीय है ।।

          ब्राह्मण ग्रन्थों जैसे शतपथ ब्राह्मण १३.३.३.३, १३.४.४.१ व १३.५.१.५ में बार बार आदित्य का एकविंश स्तर निर्धारित किया गया है और उसकी व्याख्या के रूप में भक्ति की हिंकार, प्रस्ताव आदि अवस्थाओं के शब्दों को गिनकर २१ कहा गया है । अन्यत्र (उदाहरण के लिए, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.५.१.१ आदि) १२ मासों, ६ ऋतुओं आदि को मिलाकर २० कहा गया है । इनसे परे २१वां आदित्य है। इस संदर्भ में पुराणों में आदित्य के २१ नामों की प्रासंगिकता विचारणीय है ।।

             पुराणों में कृष्ण की १६ सहस्र गोपियों द्वारा स्थापित गोप्यादित्य के संदर्भ में आदित्य को ओंकार का रूप कहा गया है ( ऐतरेय ब्राह्मण ५.३२ इत्यादि) और गोपियां ओंकार की १६ कलाएं हैं । अथर्वशिखोपनिषद में ओंकार की अ, उ एवं म मात्राओं में तृतीय मकार को आदित्य से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.१.१० में १५ को वज्र कहा गया है जिसे षोडशी आदित्य ग्रहण करके असुरों का नाश करता है ।।

             अगस्त्य द्वारा राम को आदित्य हृदय स्तोत्र प्रदान करने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.४० में आदित्य को हृदय की संज्ञा दी गई है । निहितार्थ अन्वेषणीय है । मैत्रायणी उपनिषद ६.१७, ७.१७ तथा ६.३४ इत्यादि के अनुसार अग्नि में जो पुरुष प्रतिष्ठित है, जो हृदय में है तथा जो आदित्य में है, वह यह एक ही है ।।

             अङ्गिरसों द्वारा आदित्यों से स्वर्ग में जाने की प्रतिस्पर्द्धा का उल्लेख अंगिरसों की टिप्पणी में किया जा चुका है । आदित्य एक दिन के सत्र द्वारा स्वर्ग पहुंचना चाहते हैं, जबकि अंगिरस २ दिन के सत्र द्वारा । साधना में पहला दिन आत्मा के अनुदिश यज्ञ का प्रतीक है, जबकि दूसरा दिन प्रजा के अनुदिश ।।

         इसके अतिरिक्त, जैमिनीय ब्राह्मण २.३६६ में उल्लेख है कि आदित्य की उत्तराभिमुखी रश्मियां आदित्य हैं, जबकि दक्षिणाभिमुख रश्मियां अंगिरस । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२१.१ के अनुसार अंगिरसों ने आदित्यों को दक्षिणा रूप में आदित्य रूपी श्वेत अश्व प्रदान किया । चूंकि इस अश्व ने असुरों से लोकों को छीन लिया या आदान कर लिया, अतः उसे आदित्य कहा जाता है ।।

             आदित्य व सूर्य शब्द कुछ वैदिक मन्त्रों में एक साथ आए हैं और इनका अन्तर अथर्ववेद ६.५२.१, ८.२.१५, १०.८.१६, १३.२.२, १३.२.२९, १४.१.१, १७.१.२५, ऋग्वेद १.१९१.९, ७.६०.४, शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.३७ आदि के आधार पर समझने की आवश्यकता है ।।
             शतपथ ब्राह्मण ४.५.१.१, ५.३.१.४, ६.६.१.८ तथा १०.३.५.३ आदि में उदयनीय आदित्य के लिए चरु की हवि देने का उल्लेख है । कहा गया है कि जब आदित्य उदित होता है तब सर्व को चरता है । एक ओर वैश्वानर अग्नि है जो द्यौ में शिर की भांति स्थित है । वैश्वानर के लिए पुरोडाश की, जो एकदेवत्य है, हवि दी जाती है । दूसरी ओर आदित्य आत्मा का रूप है जिसके लिए चरु की हवि का विधान है । आत्मा बहुत से अंगों से युक्त है । इसी का प्रतीक तण्डुलों से युक्त चरु को भी कहा गया है ।।

          इस प्रकार शिर को आत्मा में धारण करते हैं ? वैश्वानर क्षत्र है तो आदित्य उसकी प्रजाएं । यह उल्लेखनीय है कि उदित होते समय आदित्य का नाम मित्र. चरण करते समय सविता, मध्याह्न के समय इन्द्र और अस्त होते समय वरुण होता है (अथर्ववेद १३.३.१३) । १२ आदित्यों में से कुछ के लिए पुरोडाश की हवियों का भी उल्लेख है । इस संदर्भ में यह विचारणीय है कि अरुण जो उदित होते हुए आदित्य का रूप हो सकता है, को अनूरु अर्थात् पाद रहित क्यों का गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२३.२ आदि में अश्वमेधीय अश्व को आदित्य कहा गया है । जहां अश्व विवर्तन करता है (पद रखता है?) वहीं वहीं आहुति दी जाती है । कहा गया है कि दर्शपूर्ण मास अश्व के पद हैं ।।




।। नमों नारायण ।।

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