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काँवर यात्रा एवं शिवपूजन का रहस्य एवं फल ।। Kanvar Yatra & Shiva Poojan Secret.

जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, श्रावण-मास प्रारम्भ होते ही चारों तरफ भगवान भोलेनाथ के भक्तों द्वारा भगवान शिव का गुणगान प्रारम्भ हो जाता है । अनादि काल से यह महीना आशुतोष, औढरदानी, बाबा भोले नाथ का है । भगवान शिव का ही एक ऐसा परिवार है जिसमें सबकी पूजा होती है । भगवती जगदम्बा जो साक्षात् उमा भवानी हैं, उनकी पूजा दो बार होती है – चैत्र एवं आश्विन के नवरात्रों में । गणेश जी महाराज तो हर चतुर्थी को याद किये जाते हैं पर भाद्रपद की कृष्ण चतुर्थी को उनका विशेष प्रादुर्भाव महोत्सव मनाया जाता है ।।

पूर्व-पश्चिम में तो नहीं, पर दक्षिण भारत में देव सेनानायक कार्तिक स्वामी को "मुरुगन स्वामी" के नाम से पूजा जाता हैं, उनके बड़े-बड़े भव्य समारोह किये जाते हैं । यहाँ तक कि इस संसार में भगवान शंकर की महिमा से उनके वाहनों और गणों तक की भी पूजा होती है । वीरभद्र एवं भैरव तक की पूजा सर्वत्र होती है । सदाशिव का वाहन नन्दी (सांड़) भारतीय संस्कृति में अत्यंत आदरणीय एवं पूजनीय है । कोई किसान भी उसे गाड़ी या हल में प्रयोग नहीं करता है । भगवती का वाहन सिंह भगवती के साथ ही पूजा जाता है । राजस्थान की कर्णी माता मन्दिर में चूहों का स्थान सर्वविदित है । भगवान कार्तिकेय का वाहन मोर तो साक्षात् ब्रह्मचर्य का प्रतीक है जिसका पंख भगवान श्रीकृष्ण स्वयं धारण करते है ।।

नाग पंचमी को हम सनातनी लोग नागराज की पूजा करते हैं और उसके लिये दूध चढ़ाते हैं । भगवान सदाशिव के सिर पर विराजमान भागीरथी गंगा तो साक्षात् मोक्षदायिनी हैं ही जिनकी पूजा जन-जन के द्वारा की ही जाती है । चन्द्रमा कलंकी और अपराधी होते हुये भी शिव-सान्निध्य के कारण करवा-चौथ को सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा पूजा जाता है । भगवान शंकर के नेत्र में रहने वाले सूर्य की उपासना तो प्रातःकाल हर सनातनी व्यक्ति अर्घ्य दान द्वारा करता है जो आयुष्य और नेत्र ज्योति बढ़ाने वाला है । भगवान महेश्वर के मध्य नेत्र में रहने वाले अग्नि की महत्ता तो सबको ज्ञात ही है ।।

मित्रों, हमारे यहाँ यज्ञ में अग्नि देवता का आवाहन एवं पूजन विधिवत् किया जाता है । शिव के अश्रु स्वरुप रुद्राक्ष की भी पूजा होती है । हम नाद-ब्रह्म रूप डमरू और भव-भंजक त्रिशूल की भी पूजा करते हैं । नागा-लोग नागफनी एवं खप्पर की भी पूजा करते हैं । परमहंस सम्प्रदाय में तो धूनी एवं भस्म-पिण्डी की भी पूजा की जाती है । शम्भु के सान्निध्य में ऐसा कौन है जिसकी पूजा नहीं होती है अथवा की जाती है ? भगवान शंकर की पूजा से सब देव प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि शंकर देवों के देव महादेव हैं । हर प्राणी शिव की आराधना करता है एवं सकता है ।।

पहले तो सम्पूर्ण-विश्व में शिव मात्र की ही पूजा होती थी, किन्तु बाद में कलिकाल के प्रभाव से मतवादों के चक्कर में पड़कर मनुष्य शिव-पूजा से विमुख हो गया । आज भी प्राचीन खुदाईयों में शिवलिंग का मिलना इस बात का प्रमाण है । भले ही नाम एवं रूप अलग हों पर है तो वह शिव ही । सनातनी हिन्दु, जैन, सिख, निराकारी आदि सब शिव की ही पूजा करते थे और आज भी तरीका भले ही अलग हो शिव की ही पूजा करते हैं । सगुण-साकार की पूजा सरल एवं निर्गुण-निराकार की उपासना शास्त्रों ने कठिन बतलायी है । ॠषियों ने ऐसी विधा की खोज की जिससे सहजता से शिव की प्राप्ति हो जाये और हम परम शिवतत्व को जानकर मोक्ष के अधिकारी हो सकें ।।

भगवान शिव को सबसे ज्यादा प्रेम जलधारा से है । सारे देवता नाना प्रकार की भोग सामग्रियों से संतुष्ट होते है- जैसे गणेशजी को मोदक, कृष्ण को माखन-मिश्री, देवी माँ को हलवा तो भैरव जी को सोमरस । लेकिन हमारे भोले बाबा तो केवल जल चढ़ाकर ‘‘बं बं’’ करने से ही प्रसन्न हो जाते हैं । शास्त्र भी कहता है – ‘‘जलधाराप्रियः शिवः’’। बाबा का पूजन भी सबसे सरल है जिसमें मिट्टी की मूर्ति यानी पार्थिव लिंग बनाया और गंगा से जल भर कर लाये एवं उसे चढ़ाकर ऊपर से आक-धतूरा-बिल्व पत्र चढ़ा दिये, इसी से शिव अत्यंत प्रसन्न हो जाते हैं ।।

स्वय महेशः श्वसुरोनगेशः सखा धनेशस्तनयो गणेशः ।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भुर्बलीयसी केवलमिश्वरेच्छा ॥

भगवान शिव सर्वदा स्वतंत्र हैं, वह चाहें तो एक पल में ही सृष्टि का प्रलय कर देवें । परन्तु अकारण करूणा वरूणालय हिमालयवासी कैलासी किसी का भी उद्धार कर देते हैं । ये कब या कैसे प्रसन्न हो जायेगें, यह कोई नहीं कह सकता है । बड़े-बड़े देवता भी जिनकी चरण रज के लिये लालायित रहते हैं, वे भोलेनाथ अपने भक्तों के वशीभूत हैं । प्रेम की डोर में अघोर बंधते देर नहीं करते । आज तक भगवान शिव ने आजतक किसी को खाली हाथ नहीं लौटाया ।।

भगवान विष्णु की भक्ति के वशीभूत होकर उन्हें अपना चक्र और धनुष दे दिया । कुबेर को सारे ऐश्वर्य देकर धनाधीश बना दिया । इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दे दिया । जिसने जो भी माँगा उसे बाबा ने एवमस्तु कर दिया । कभी-कभी स्वयं भी वरदान देने के चक्कर में भस्मासुर से परेशान हो उठे और दिव्य लीला दिखा दी । ऐसे भोलेनाथ को ही सावन में शिवरात्रि के दिन शिवभक्त "काँवर से जल" लेजाकर चढ़ाते हैं ।।

प्रत्येक राज्य में लोग अपने-अपने नजदीकी सिद्ध शिवपीठ पर किसी पवित्र नदी का जल लेजाकर चढ़ाते हैं । जब भी कोई शिवभक्त काँवर संकल्प करके उठाता है तभी से उसकी शिवभक्ति आरम्भ हो जाती है । कई भक्त तो गोमुख तक भी जाते है और वहाँ गंगा स्नान करके अपने तन-मन को पवित्र बनाकर, भभूत लपेट कर, पवित्र-घट में संकल्पपूर्वक गंगा-जल भरकर उसकी पूजा करते हैं । फिर "हर हर महादेव" का जयकारा लगाकर काँवर उठा लेते हैं । इन परिस्थियों में हर काँवरिया एक तपस्वी होता है, अतः उसे तपस्वी के कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक होता है ।।

सबसे पहले भगवान शंकर को काँवर का जल किसने चढ़ाया यह तो एक रहस्य ही है । परन्तु पुराणों और लौकिक कथाओं के माध्यम से पता चलता है कि जिस समय सुर-असुर मिलकर समुद्र मन्थन कर रहे थे उसी समय महाकाल की ज्वाला जैसा धधकता हुआ हलाहल विष प्रकट हुआ । उस काले कालकूट से हर कोई प्राणी भयभीत हो उठा, देवता तक पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये । भगवान विष्णु का तो रंग ही उसकी ज्वाला से काला हो गया और वे श्यामसुन्दर बन गये । तब देवताओं और दानवों की सभा में भयंकर कोलाहल हुआ कि कौन धारण करेगा यह जहर ? सभी की नज़र भगवान शिव पर ही अटकी थी, लेकिन सब संशंकित थे कि बाबा ने अगर मना कर दिया तो क्या होगा ? ।।

भगवान विष्णु आगे आये और भोलेनाथ से निवेदन किया – हे भगवन् ! लोक कल्याण के लिये यह हलाहल आप ही धारण करें । सभी की निवेदन से भगवान भोलेनाथ ने प्याला उठाया और पी लिया उस जहर को । बाबा ने कण्ठ में ही उसे धारण किया और भक्त प्रेम से पुकार उठे – “जय हो नीलकण्ठ महादेव की !” लोकोक्ति है कि उस जहर के ताप से भगवान भोले नाथ भी बावले हो उठे । परन्तु शिव तो लीलाधारी हैं, कब कैसी लीला करेगें वे ही जानते है । सागर एवं पर्वत मालाओं को लाँघते-लाँघते बाबा नीलकंठ हिमालयखण्ड में आ बैठे ।।

वहीं पर देवताओं ने गंगाजल के द्वारा उनका महाभिषेक किया और तब से नीलकण्ठ महादेव प्रतिष्ठापित हो गये । सबसे पहले देवताओं ने ही महादेव का महाभिषेक और महाश्रृंगार किया था । रावण भी भगवान शंकर का अभिषेक गंगाजल से करता था । यहाँ तक कि अभिषेक के लिये अपनी लंका नगरी में उसने गंगाजल का कुण्ड बना दिया था जहां से वह स्वयं जल लाकर शिव का अभिषेक करता था । रामायण में प्रसिद्ध है कि युद्ध के समय भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी की प्रसन्नता के लिये शिवलिंग स्थापित कर स्वयं अपने करकमलों से अनेक तीर्थों से लाये गये पवित्र जल के द्वारा "रामेश्वर ज्योर्तिलिंग" का महाभिषेक किया और रावण के ऊपर विजय प्राप्त की । उसी की स्मृति में आज भी लोग गोमुख से रामेश्वरम् तक की कठिन पैदल यात्रा करके गोमुख से लाये गये जल को भगवान "रामेश्वर" को अर्पित कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं ।।

एक बार संत एकनाथ जी गंगोत्री से गंगाजल भरकर यानि "काँवर उठाकर" रामेश्वर की ओर पैदल यात्रा करते हुये ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ पानी का अत्यन्त अभाव था । उनके साथ में कई संगी-साथी भी थे । उसी रास्ते में बिन पानी के एक गदहा तड़प रहा था । लोग उसे देखते और आगे निकल जाते । एकनाथजी उस रास्ते से जाते समय यह नज़ारा देखकर शास्त्रों की, संतो की यह बात याद करने लगे कि हर प्राणी में शिव का वास है ।।

यह देह ही देवालय है और इस देह में यह चेतन देव ही शिव है । जब गदहे के रुप में यह चेतन देव तड़प रहे हैं तो इन्हें छोड़कर मैं रामेश्वर कैसे जा सकता हूँ ? मैं तो अपने शिव को यहीं मनाऊँगा । ऐसा सोचकर वे हर-हर महादेव कहते हुए समस्त गंगाजल उस मृततुल्य गदहे के मुँह में डाल दिए । वहां चमत्कार यह हुआ कि उसी गदहे के मुख में उन्हें भगवान भोलेनाथ का दर्शन हो गया । सारी मनोकामनायें पूर्ण हो गयीं । किसी प्राणी का अपमान करके किया हुआ पूजन कभी सफल नहीं होता है । किसी पीड़ित की उपेक्षा करना शिव का ही अपमान है ।।

।। नारायण सभी का कल्याण करें ।।

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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

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