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भक्त चक्रिक भील के भक्ति की पराकाष्ठा ।।

भक्त चक्रिक भील के भक्ति की पराकाष्ठा ।। Bhakta Chakrik Bhil Ki Bhakti.


जय श्रीमन्नारायण,

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चान्येऽन्त्यजास्तथा ।
हरिभक्तिं प्रपन्ना ये ते कृतार्था: न संशयः ।।

अर्थ:- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य अन्त्यज लोगों में से जो भी हरि भक्ति द्वारा भगवान के शरणागत हुए । वे कृतार्थ हो गए, इसमें कोई संदेह नहीं ।।

मित्रों, यह बात सम्पूर्ण सत्य है, और इस विषय में अनेकों सत्य कथायें हैं । द्वापर युग में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था । भील होने पर भी वह सच्चा, मधुरभाषी, दयालु, प्राणियों की हिंसा से विमुख, क्रोध रहित और माता-पिता की सेवा करने वाला था ।।


उसने न तो कोई विद्या पढ़ी थी, न ही कोई शास्त्र सुने थे । किन्तु था वह भगवान का भक्त । वन में एक पुराना मन्दिर था, उसमें भगवान की एक मूर्ति थी । सरल हृदय चक्रिक को जब कोई अच्छा फल वन में मिलता, तब वह उसे चखकर देखता था ।।

यदि वह फल स्वादिष्ट लगा तो उसे लाकर वह भगवान को चढ़ा देता था । और यदि वह फल मीठा नहीं होता तो वह स्वयं खा लेता । उस भोले अनपढ़ को ''जूठे फल नहीं चढ़ाने चाहिए'' यह उसे पता ही नहीं था ।।

एक दिन की बात है, कि उसे वन में एक पियाल वृक्ष पर एक पका फल मिला । फल तोड़कर उसने स्वाद जानने के लिए उसे अपने मुख में डाला । फल बहुत ही स्वादिष्ट था, पर मुख में रखते ही वह गले में सरक गया ।।


अब सबसे अच्छी वस्तु भगवान को देनी चाहिए यह चक्रिक की मान्यता थी । एक स्वादिष्ट फल उसे आज मिला तो वह भगवान का था । भगवान के हिस्से का फल वह स्वयं खा ले, यह तो बड़े दुख की बात थी ।।

ऐसे में उसने उस फल को गले से निकालने के लिए उसने अपने दाहिने हाथ से अपना गला दबाया । इसलिये कि वह फल उसके पेट में न चला जाय । मुख में अँगुली डालकर वमन किया, पर फल निकला नहीं ।।

"चक्रिक का सरल हृदय" सोंचा भगवान को देने योग्य फल स्वयं खा लिया और भगवान को नहीं दे पाया । वह भगवान की मूर्ति के पास गया और कुल्हाड़ी से अपना गला काटकर उसने फल निकालकर भगवान को अर्पण कर दिया ।।


इतना करने के बाद पीड़ा के कारण वह गिर पड़ा । सरल भक्त की निष्ठा से सर्वेश्वर भगवान जगन्नाथ रीझ गये । वे श्री हरि चतुर्भुज रूप से वहीं प्रकट हो गये और मन-ही-मन कहने लगे ।।

यथा भक्तिमतानेन सात्विकं कर्म वै कृतम् ।
यद्दत्त्वानृण्यमाप्नोमि तथा वस्तु किमस्ति मे ।।
ब्रह्मत्वं वा शिवत्वं वा विष्णुत्वं वापि  दीयते ।
तथाप्यानृण्यमेतस्य भक्तस्य न हि विद्यते ।।

अर्थ:- इस भक्तिमान् भील ने जैसा सात्विक कर्म किया है, मेरे पास ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे देकर मैं इसके ऋण से उऋण हो सकूं ? ब्रह्मा का पद, शिव का पद या विष्णु का पद भी दे दूँ तो भी इस भक्त के ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता ।।

मित्रों, फिर भक्त वत्सल प्रभु ने चक्रिक के मस्तक पर अपना अभय करकमल रख दिया । भगवान के कर स्पर्श पाते ही चक्रिक का घाव मिट गया । उसकी पीड़ा चली गई । वह तत्काल स्वस्थ होकर उठ बैठा ।।


देवाधिदेव नारायण ने अपने पीताम्बर से उसके शरीर की धूलि इस प्रकार झाड़ी, जैसे एक पिता अपने पुत्र के शरीर की धूलि झाड़ता है । भगवान को सामने देख चक्रिक ने गद्गद होकर, दोनों हाथ जोड़कर सरल भाव से स्तुति करने लगा ।।

हे केशव ! हे गोविन्द ! हे जगदीश ! मैं मूर्ख भील हूँ । मुझे आपकी प्रार्थना करनी नहीं आती । इसलिए मुझे क्षमा करो ! मेरे स्वामी !  आप प्रसन्न हो जाओ । आपकी पूजा छोड़कर जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं ।।

भगवान ने वरदान माँगने को कहा । चक्रिक ने कहा- हे कृपामय ! जब मैंने आपके दर्शन कर लिये । तब अब और क्या पाना शेष रह गया ? मुझे तो कोई वरदान चाहिए नहीं । बस, मेरा चित्त निरन्तर आपमें ही लगा रहे, ऐसी कृपा बनाये रखें बस ।।


भक्तवत्सल भगवान ने उस भील को भक्ति का वरदान देकर चले गए । भगवद्दर्शन और भगवान से वरदान प्राप्त करके भक्त चक्रिक वहाँ से द्वारका चला गया और जीवन भर वहीं भगवद्भजन में लगा रहा ।।

।। नारायण सभी का कल्याण करें ।।


जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

जय जय श्री राधे ।।
जय श्रीमन्नारायण ।।

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