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उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा एवं पूजा विधि सहित हिन्दी में ।।

उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा एवं पूजा विधि सहित हिन्दी में ।। Margshirsh Ekadashi Vrat Katha And Vidhi in Hindi.


जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, एक समय कि बात है, उत्पन्ना एकादशी के विषय में ऋषियों द्वारा पूछने पर सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों! इस व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर से कही थी । वही मैं तुमसे कहता हूँ । एक समय यु‍धिष्ठिर ने भगवान से पूछा था, उत्पन्ना नाम कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल प्राप्त होता है ।।

उपवास के दिन के भी सभी कृत्यों को भी कृपा करके बतायें । यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ । सर्वप्रथम हेमंत ऋ‍तु में मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी से इस व्रत को आरंभ किया जाता है । दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश भी मुँह में रह न जाए ।।


दशमी की रात्रि को भोजन भी न करें तथा न अधिक बोलें । एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें । इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें । व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे । स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि षोडश उपचारों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें ।।

रात्रि में सोना या स्त्री प्रसंग भूलकर भी नहीं करना चाहिए । सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए । जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा याचना भी अवश्य करनी चाहिए । धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए । जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है ।।


व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है । संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है । अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से प्राप्त होता है ।।

उससे भी हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है । इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है । विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है । अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है । हजार यज्ञों से भी अधिक इसका फल होता है ।।


इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है । रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है । दिन में एक बार भोजन करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है । जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते । युधिष्ठिर ने पूछा कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया । सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए ।।

भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य हुआ था । वह बड़ा बलवान और भयानक था । उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया । तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं ।।


तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ । वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं । शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे । वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे । देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है ।।

आप हमारी रक्षा करें । दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं । आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता तथा संहार भी करने वाले हैं । सबको शांति प्रदान करने वाले भी आप ही हैं । आकाश और पाताल भी आप ही हैं । सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं । आप सर्वव्यापक हैं और आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है ।।


हे भगवन्! दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से च्युत कर दिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें । इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु कहने लगे कि हे इंद्र! ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय में है तथा उसका स्थान कहाँ है? यह सब मुझसे कहो ।।

भगवान के इस प्रकार पूछने पर देवराज इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस था । उसका एक महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ । उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है । उसी ने सब देवताओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया है । उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अधिकार कर लिया है ।।


सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है । स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है । हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए । इन बैटन को सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा । तुम चंद्रावती नगरी जाओ । इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया । उस समय दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था ।।

उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे । जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े । भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला । बहुत-से दैत्य मारे गए बस केवल मुर बचा रहा । वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा । भगवान ने जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाये वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता रहा ।।


उसका शरीर छिन्न‍-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा । दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ । यह युद्ध दस हजार वर्ष तक चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा । थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए । वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए । यह गुफा द्वादश योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था । विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए ।।


मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई । देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया । भगवान श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी । आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं ।।


ऐसी इस उत्पन्ना नाम की एकादशी को जो मुर नामक दैत्य का हनन करनेवाली और भगवान श्रीहरि द्वारा सम्मानित हैं । ऐसी देवी इस व्रत से प्रशन्न होकर भगवान का सान्निध्य प्रदान कर देती हैं । इस लोक के समस्त सुखों को सहज ही प्रदान कर देती हैं । इसलिये पूरी श्रद्धा से उपरोक्त विधि के अनुसार इस एकादशी के व्रत को करना चाहिये ।।

।। नारायण सभी का कल्याण करें ।।


जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

जय जय श्री राधे ।।
जय श्रीमन्नारायण ।।

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