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जय श्रीमन्नारायण,

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ (गीता - अ.४.श्लोक.२०.)


अर्थ : जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता || २० ||


भावार्थ:-- ये बातें खासकर ज्ञानयोग की चर्चा करने वालों के लिए है ! जो लोग परमात्मा की चर्चा करते हैं, कि - कोई कहता है, परमात्मा प्रेम से प्राप्त होता है, तो कोई कहता है, कि भक्ति ही उससे मिलने का आसान मार्ग है, तो कोई कहता है, कि योग, ध्यान, साधना, उपासना आदि-आदि से प्राप्त होता है ||

ठीक है, अच्छी बात है, लेकिन मैं ऐसे लोगों से पूछता हूँ, कि अगर वो अपने घर के मालिक हैं, तो अपने परिवार के सदस्यों से कैसे खुश रहते हैं ? अगर उनके परिवार के लोग उनके सामने बैठकर ध्यान, योग, साधना, उनकी उपासना अथवा मिट्ठी-मिट्ठी बातें करें तो वो प्रसन्न रहेंगें ||

अगर हाँ तो घर कि नैया डूबी समझो ||

और अगर ना तो क्यों ? क्योंकि घर का अन्य कार्य कौन करेगा ! और अगर नहीं करेगा तो घर कि बाकि व्यवस्था अथवा खर्च कैसे निकलेगा | ये सब फुर्सत के समय में करना चाहिए, मुख्य तो अपना कर्तब्य कर्म है ||

अब कर्म कि परिभाषा आप क्या करते हैं, ये आपके उपर है ! आप मदिरालय में जाते हैं, ये भी आपका कर्म ही है | आप अपनी कमाई को वेश्याओं को लुटाते हैं, ये भी आपका ही कर्म है | अथवा आप मंदिर चल कर जाते हैं, ये भी आपका कर्म है, तथा अपनी कमाई में से कुछ सत्पुरुषों को दान करते हैं, ये भी आपका ही कर्म है ||

अब आप उपरोक्त दोंनों प्रकार के कर्मों का विश्लेषण करें ! कर्म दोंनों है, लेकिन दोंनों में आगे एक और शब्द जुड़ जाता है -- वो है, पहले के आगे दुष्कर्म और दुसरे के आगे सत्कर्म | दुष्कर्म आगे चलकर आपके दुर्भाग्य को निर्मित करता है, और सत्कर्म आपके सद्भाग्य को उजागर करता है ||

सद्भाग्य और दुर्भाग्य का चयन आपके अपने हाथों में हैं --- जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान |||

उपरोक्त श्लोक में भी भगवान कृष्ण यही स्पष्ट करना चाहते हैं | कैसे ? वो ऐसे - कि जो पहले वाला कर्म है, वो आपकी आसक्ति को दर्शाता है, अथवा स्पष्ट करता है | तथा दूसरा जो कर्म है, वो आपकी कर्म फल के त्याग को स्पष्ट करता है ||

इस बात कि स्पष्टता यह है, कि - जो व्यक्ति कर्म फल कि ओर ध्यान दिए बिना अपना कर्तब्य कर्म करता है, और जो मिला उसी से(परमात्मा के भरोसे अथवा चिंतन से) संतुष्ट रहता है, तथा किसी (संसार) कि उम्मीद या सहारे पर निर्भर नहीं रहता, वह सबकुछ करके भी कुछ नहीं करता, अर्थात संसार में रहकर भी राजा जनक की तरह बन जाता है |||

|| नमों नारायण वेंकटेश स्वामी आप सभी की रक्षा नित्य करते रहें, तथा आप सभी को आयु, धन, यश, कीर्ति तथा पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न बनायें ||

!! नमों नारायणाय !!

1 comment:

  1. prabhu ji dhany hai jo in sabto ko hame bataya ..jai ma

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