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जय श्रीमन्नारायण,


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (गीता अ.३.श्लोक.१७.)


अर्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है || १७ ||

भावार्थ:- आत्मा में रमण का अर्थ है, सबकुछ परमात्मा पर छोड़ देना | सबकुछ अर्थात सबकुछ - मतलब अगर दुःख आये, तो उसे धैर्य पूर्वक सहन करना | तथा सुख आये तो बिना अहंकार के उसका उपभोग करना | ऐसे व्यक्ति के लिए कोई भी कर्तब्य कर्म शेष नहीं रह जाता | यथा - नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ||

फिर भी -- ऐसे लोगों को भी आसक्ति से रहित होकर कर्म करते रहना चाहिए - तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर | क्योंकि -- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः | अर्थात - कर्म करते हुए ही राजा जनक जैसे महापुरुषों ने सिद्धि प्राप्त की जिससे भगवान को भी चलकर आना पड़ा ||

दूसरा पक्ष ये है, कि - लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि | अर्थात - अगर अपनी कामनाओं या आवश्यकताओं कि पूर्ति कि भी बात हो, तो भी कर्म करना ही श्रेयस्कर सिद्ध होता है ||

मध्य कालमें कुछ ऐसे विचारक हुए इस देश और इस संस्कृति में, कि इस संस्कृति कि जड़ को ही हिला दिया अर्थात खोखला कर दिया | उसका नतीजा आज के समाज को भुगतना पड़ रहा है, चौतरफा हमला सहन करना पड़ रहा है ||

आपलोग समझ गए होंगें, मैं किसकी बात कर रहा हूँ | छोडिये किसी कि भावनाओं को ठेस पहुँचाना हमारा उद्देश्य नहीं है | लेकिन जो भी हों - राजा जनक, अष्टावक्र, महर्षि बसिष्ठ, गर्गादी महापुरुष तथा विश्वामित्र जैसों से बड़े ज्ञानी तो शायद नहीं रहे होंगें | क्योंकि इन लोगों ने अपने योग बल, भाव बल, तपबल और कर्मबल के माध्यम से परमात्मा को पृथ्वी पर उतार कर दिखाया, अथवा परमात्मा को भी आना पड़ा ||

ये बातें जो मैं कह रहा हूँ, ये मेरे शब्द नहीं हैं, ये मैं गीता के आधार पर कह रहा हूँ | और इसके अलावे कारन भी है, क्या कारन है, कारण ये है, कि ऐसे लोगों पर समाज कि बहुत बड़ी जिम्मेवारी होती है | कृष्ण को प्रमाण मानकर देखिये, कहते हैं, कि -

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

अर्थ:- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़कर जाता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है || २१ ||

अब आप इस श्लोक के अनुसार सोंचिये - विचार करिए ||

ये सत्य है, कि पत्थर में भगवान नहीं होता - लेकिन वहां गगनचुम्बी ध्वजाएं आकाश में उड़ती सकारात्मक उर्जा को उतार कर मंदिर में लाता है, और धरती से मूर्ति जो जुड़ा रहता है, तो धरती कि शीतलता बनी रहती है | जहाँ प्रवेश करते ही हमारा सारा तनाव दूर हो जाता है, और शांति का आभास होता है ||

दूसरी बात ये है, कि - मंदिर ऐसे ही लोगों का होता है, जो महापुरुष हुए हैं | अर्थात जिन्होंने कुछ ऐसे कार्य किए है, जिनमें साधारण मानव के लिए केवल शिक्षा ही शिक्षा है | अब कोई केवल बुराई ही देखने पर उतर जाय, तो साक्षात् परमात्मा भी जब इस धरती पर सगुन रूप में आता है, तो कुछ अवगुणों को स्वीकार करके ही आता है, क्योंकि यहाँ कोई पूर्ण निष्पन्न रह ही नहीं सकता ||

बातें तो बहुत है, लिखने से जी नहीं उब रहा है, लेकिन उँगलियों में झनझनाहट जरुर होने लगती है | कोई बात नहीं फिर अगले पोस्ट के साथ मिलेंगें, तबतक के लिए आप सभी कि मंगल कामना (भगवान के सम्मुख बैठकर कर सकूं) के लिए आज्ञा चाहता हूँ ||

आप सभी के उपर कोई आपत्ति विपत्ति न आये, भगवान वेंकटेश आप सभी को ढेर सारी खुशियाँ इस होली के साथ प्रदान करें, होली कि हार्दिक बधाई के साथ आप सभी के लिए मंगलकामना ||

!! नमों नारायणाय !!

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