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जय श्रीमन्नारायण,

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ (गीता.अ.४.श्लोक.१५.)

अर्थ : पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर || १५ ||

भावार्थ:- सत्य ये है, कि परमात्मा पत्थर कि मूर्ति में नहीं होता | कोई जरूरी नहीं है, कि कर्मकांड पूजा-पाठ आदि से परमात्मा प्राप्त हो जाय | बड़े से बड़े यज्ञादि से भी कोई आवश्यक नहीं है, कि परमात्म प्राप्ति हो ही जाय | और ये भी अकाट्य सत्य हो सकता है, कि ये सब कुछ परमात्मा कि मर्जी के विपरीत किसी चतुर ब्राह्मण कि चाल रही हो, कि आने वाली पीढ़ी बैठकर ऐसो आराम के साथ जीवन बिताये, इसलिए शायद कर्मकांड आदि कि रचना कि गयी हो ||

अगर ये सबकुछ सत्य है, तो ये तो समाज के साथ सचमुच बहुत बड़ा अन्याय है | इस पाखण्ड से दूर रहना ही चाहिए, क्योंकि उपरोक्त बातें यदि सत्य है, तो इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है ||

लेकिन मानव मन कि विकृति को साहब क्या कहें, इस मन को उलझाए रखने के लिए, कुछ न कुछ चाहिए | क्योंकि हे समय यह बिना कुछ किये रह ही नहीं सकता | कृष्ण कहते हैं -- 

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

अर्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है || १५ ||

एक छोटा सा वाकया सुनाता हूँ, -- एक राजा के बाजार में ऐसा नियम था, कि जो कुछ भी सामान बिकने को आएगा, न बिकने पर राजा के द्वारा खरीद लिया जायेगा | एक दिन एक सरफिरा भुत यानि कि प्रेत बेचने आ गया | राजा के पियादे पहुंचे, पूछा क्या ऐसा लेकर आये हो, जो दिन भर में भी नहीं बिका | उस सरफिरे ने कहा - महानुभाव, हम भुत बेच रहे हैं | स्वभावतः भुत का नाम सुनते ही डर कर भागने लगे, लेकिन नियमानुसार उन्हें खरीदना ही था | पियादों ने पूछा - कीमत ? सरफिरे ने कहा - भुत का कीमत भुत ही बताएगा | पियादों ने पूछा - भुत जी आपका कीमत ? भुत ने कहा - मेरा कीमत है, कि मुझे हर समय काम चाहिए | पियादों ने सोंचा, राजा के यहाँ काम तो बहुत ही रहता है, चलो अच्छा ही हुआ | तब भुत ने कहा - इसके अलावे एक शर्त भी है, मेरा, कि अगर मुझे काम नहीं मिला, तो मैं तुम्हारे राजा को खा जाऊँगा | पियादों ने कहा उसकी नौबत नहीं आएगी, काम कि कमी नहीं है, चलो ||

ले गए, अब जाते ही उसने कहा - काम | राजा ने कहा - फलां काम कर के आ, कह कर राजा पीछे मुड़ा, तो भुत बोला काम | राजा ने कहा - जो बताया वो किया ? बोला हाँ साहब | राजा ने दूसरा काम बताया, फिर तीसरा, चौथा, पांचवा इसी तरह दोपहर हो गया, राजा परेशान, समय ही नहीं दे रहा है, कि कुछ अन्य सोंचे ||

राजा के मरने कि स्थिति आ पहुंची, न पानी पीने का समय न खाना खाने का | और भुत तैयार बैठा है, कि खा जाऊंगा काम दो वरना | अब राजा करे तो क्या करे, कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था | इतने में एक बुद्धिमान मंत्री आया, और उसने एक उपाय बताया | कहा भुत को काम चाहिए, चाहे कैसा भी काम क्यों न हो | राजा ने कहा हाँ - तो क्या बस, भुत को कहो कि जब तक दूसरा काम न बताऊँ, तब तक इस खम्भे पर उपर निचे उतरता चढ़ता रह ||

भुत ने कहा ठीक है, उसे तो काम चाहिए, चाहे कैसा भी काम  क्यों न हो | अब उस भुत का आजतक उसी खम्भे पर उतरना चढ़ना लगा है ||

अब आप अपने मन में सोंचिये, बात क्या है ? मैं बताता हूँ, बात क्या है | बात ये है, कि आप-हम वो राजा हैं, पियादे - हमारे आगे-पीछे घूमने वाले चमचे हैं, हमारा मन ही भुत है, और ब्राह्मण, गुरु, शास्त्र और ज्ञानीजन ही बुद्धिमान मंत्री हैं ||

इस मन को हर समय कोई न कोई काम चाहिए, ये हर समय मनुष्य को परेशान करके रखता है, अकारण | तो पूर्वज ऋषियों ने शास्त्रों में अनेक प्रकार से इस मन रूपी भुत को स्थिर रखने हेतु धर्म-कर्म (सत्कर्म) रूपी खम्भा दिया, जिसपर मन अगर लग जाय तो हमारा कल्याण हो जाय ||

और कौन कहता है, कि मंदिर जाने से शांति नहीं मिलती, कौन कहता है, कि कर्मकांड से फायदा नहीं होता | प्रत्यक्ष को प्रमाण कि आवश्यकता नहीं होती, और इसके प्रमाण हम खुद हैं | हमने अपने इन्हीं हाथों से अर्थात इसी शरीर से अनेकों का कल्याण करावा दिया है ||

हाँ मैं मानता हूँ, कि पाखंड होता है, लेकिन पाखंड में भी कहीं न कहीं धर्म छिपा होता है | और पाखंड कहाँ नहीं है, हमारे शरीर से लेकर, हमारे किस कार्य में पाखंड नहीं है | यह शरीर बना ही है, पाखंड से, अथवा यूँ कहें की संसार या समूची सृष्टि ही पाखंड है ||

वेद सत्य ज्ञान एवं ईश्वर कृत अथवा अपौरुषेय कहा जाता है | लेकिन थोडा समझने में जटिल है,सबके समझ से परे है | और शास्त्र समझने में आसन एवं सरल ज्ञान को प्रदर्शित करते हैं | इसीलिए बुद्धिजीवियों ने वेदों का ही सरलीकरण शास्त्र के रूप में हमें उपलब्ध कराया है | एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति ( ऋग्वेद) सत्य अथवा परमात्मा एक ही है, लेकिन उस तक जो जैसे पहुंचा, वैसा ही ज्ञान समाज को दिया ||

दूसरी बात - किसी भी संस्था को जीवित या संचालित रखने हेतु कुछ ज्ञानियों की आवश्यकता होती है | तो इस सद्ज्ञान को, की परमात्मा ही एकमात्र सत्य है, और उसे प्राप्त करना ही मानव का एकमात्र लक्ष्य या कर्म है, एक वैदिक सनातन व्यवस्था बनाई गयी | जिसे बाद में लोगों ने काफी विकृत कर दिया, और सत्य सूत्रों का दुरुपयोग करने लगे | जिसके लिए कोई अकेला नहीं, वरन सारा समाज जिम्मेवार है ||

लेकिन कर्मकांड वगैरह जो क्रियाएं बनाई गयी हैं, वो केवल और केवल परोपकार की दृष्टि से ही बनाई गयी है, इसमें कोई पाखंड नहीं है | पाखंडी कोई व्यक्ति विशेष के रूप में हो सकता है, लेकिन सम्पूर्ण सिद्धांत गलत हैं, और सब पाखंडी हैं, ये कहने वाले से बड़ा कोई दूसरा पाखंडी नहीं हो सकता, वो खुद बहुत बड़ा पाखंडी है ||

और इस सत्य का ज्ञान किसी को हो भी जाय, तो कृष्ण कहते हैं, की उसे भी वैसे ही वर्ताव या आचरण करने चाहिएं, जैसा आचरण एक आम इंसानों के लिए शास्त्रों में निर्धारित किया गया है | क्योंकि - कर्म न करने से अच्छा कुछ न कुछ करना है - इस विषय में कृष्ण का विचार है -- 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
भावार्थ : तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा || १८ ||

इसी सन्दर्भ में उपर का श्लोक है, कि जनकादि महापुरुषों ने भी, उस परम ज्ञान को जानकर ही, लोकशिक्षा हेतु साधारण कर्म किया करते थे, यथा - कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः | राम तो परमात्मा थे, कृष्ण को तो पूर्णावतार कहा जाता है, फिर उन्होंने भी साधारण जन कि तरह आचरण करते हुए अनेकों लीलाएं की ||

इसीलिए -- एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ (गीता.अ.४.श्लोक.१५.)
अर्थ : पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर || १५ ||

कहने वालों को कहने दे, हे मानव तू अपने कर्तब्य कर्म से विमुख ना हो | क्योंकि जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान - अत: सोंच-समझकर कर्म कर | सत्संग कर, मंदिर जाकर भगवद्दर्शन कर, बड़े से बड़े अनुष्ठान का आयोजन करा, बड़े से बड़े सत्संग का आयोजन करा, फिर देख तेरा कल्याण कैसे नहीं होता, तत्क्षण कल्याण हो जायेगा ||

|| नमों नारायणाय ||

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