जय श्रीमन्नारायण,
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥गीता अ.७.श्लोक,१३.
अर्थ : क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं || १३ ||
भावार्थ:-- माया महा ठगिनी हम जानी | ये कबीर जी के एक भजन का एक अंश है | माया का स्वरूप बड़ा विस्तृत एवं दुष्कर है | लेकिन हर मुश्किल का समाधान होता है | अथवा यूँ कहें कि मुश्किल, मुश्किल हो सकता है, नामुमकिन नहीं ||
तो अब इसका समाधान क्या है ? तो हमारी नजरों में इस मुश्किल का हल ये है, कि जितना अधिक से अधिक धार्मिक कृत्यों को कर पायें | धर्म जितना अधिक करें, उतना लाभप्रद है, हमारे लिए | आप किसी कि मत सुनना कि ऐसे करो, वैसे करो | आप शास्त्रों कि सुनना केवल, क्योंकि शास्त्र किसी के लिए एकतरफा कुछ नहीं कहते, वरन समस्त मनुष्य समुदाय के कल्याणार्थ ही कोई भी सुझाव देते हैं ||
दूसरी बात, हम हमारे कर्मों का अवलोकन करें, कि हमने जो कुछ भी किया, अथवा धर्म के नाम पार जो भी कराया गया या हम कर रहे हैं, उसमें अपने कल्याण के अलावा दूसरे के कल्याण का कितना प्रायोगिक कर्म हमारे द्वारा किया गया ||
क्योंकि परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई | अष्टादश पूराणेषु ब्यासस्य बचनद्वयं | परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं ||
!! नमों नारायणाय !!
जय हो जय श्री राम
ReplyDeleteनवरात्रो की हार्दिक शुभ कामनाये प्रणाम महाराज जी