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जय श्रीमन्नारायण,

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत  !
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ !!

अर्थ : हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित ज्ञानीजन को भी लोकसंग्रह करने की इच्छा न होते हुए भी उसी प्रकार कर्म करना चाहिए !!

जैसे मानलिया जाय, कि हम परम ज्ञान को प्राप्त हुए महापुरुष हैं ! अब अगर हमें ये ज्ञान हुआ कि मंदिर कि मूर्ति में कोई भगवान नहीं होता ! सत्य तो केवल एक है, और उसी सत्ता को प्राप्त करने हेतु ये सारे मार्ग बनाये गए हैं, मनीषियों द्वारा ! तो हम कभी इत्तेफाक से यदि मंदिर जाते हैं, और हमारे पीछे दर्शन हेतु बहुत बड़ी लाइन लगी है ! अब उस लाइन में सब के सब ज्ञानी तो हैं, नहीं ! लेकिन अगर हम ज्ञानी हैं, तो हम ये कहना शुरू करें, कि अरे ये सब पाखंड है, इस मूर्ति में कोई भगवान नहीं रहता, ये सब ढोंग है !!

बात तो मेरी सत्य हो सकती है, क्योंकि मैं ज्ञानी हूँ ! तो मैं मूर्ति और परमात्मा कि उपेक्षा कर के वहां से निकल जाता हूँ ! अब लोगों में, जो लाइन में खड़े हैं, उनमें से सब के मन में तो नहीं, लेकिन कुछ के मन तो जरुर ये बातें घर करेंगीं कि इतने बड़े महापुरुष ने कहा तो जरुर कुछ न कुछ सच्चाई तो जरुर होगी ! क्योंकि - महाजनों येन गतः स पन्थाः ! अब वो तो मेरे जैसा ज्ञानी है नहीं, मेरे जैसा उसका कल्याण तो होगा नहीं, बल्कि होगा क्या कि उसका पतन क्योंकि वो मंदिर जाना बंद कर देगा तथा सभी ऐसे प्रचारकों को उपेक्षा कि दृष्टि से देखेगा, तो उसका पतन तो कन्फर्म हो ही गया न !!

इसीलिए मेरे प्रभु गीताजी में कहते हैं:--

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ !
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ !!

अर्थ : परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए !!

और अगर ऐसा कोई नहीं करें बल्कि इस सूत्र के विपरीत प्रचार करे, तो उसे ज्ञानी समझने कि भूल कदापि न करें ! क्योंकि वो ज्ञानी तो क्या, ज्ञान शब्द का """ज्ञ"" भी नहीं जानता ऐसा व्यक्ति अपने तो डूबेगा ही आपको भी ड़ूबायेगा ! ऐसा व्यक्ति आपका कल्याण नहीं बल्कि पतन का मार्ग दर्शा रहा है, ऐसे मूर्खों के प्रति स्नेह तथा श्रद्धा नहीं बल्कि कठोरता पूर्वक बर्ताव होना चाहिए !!

!! नमों नारायणाय !!

1 comment:

  1. स्वामी जी प्रणाम आपके विचार प्रसंशनीय है। कृपया इस ब्लाग को भी देखें। इस लेख में सनातन धर्म की संपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या की गई है इसे पूरा पढ़े।www.thakurrs55.blogspot.com

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