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जय श्रीमन्नारायण,
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् !
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति !!

अर्थात् जिसके पास प्रज्ञा (विवेक, विचार) नहीं है, शास्त्र उसका क्या उपकार कर सकता है ? नेत्रों से विहीन व्यक्ति का दर्पण भी क्या उपकार करेगा ? नेत्रों को बंद करके मनुष्य प्रकाशित लैम्पपोस्च से भी टकरा जाता है, दिन में भी भटक जाता है ! सच्चा बुद्धिजीवी कभी प्रज्ञा-नेत्र को मूँदकर नहीं बैठता है !!

ज्यायसी चेत् कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन 
तत् किं कर्मणी घोरे माम् नियोजयसि केशव।।गी 3.1।।

जब आप स्वयं ही कह रहे हो कि ज्ञान कर्म से अधिक श्रेष्ठ है तो फिर मूझे क्यों ऐसे भयंकर कर्म में धकेल रहे हो? यह सर्वाधिक सुयोग्य गुरु द्वारा प्रदत्त सर्वोच्च ज्ञान पर की गई शंका है। अगले श्लोक में तो अर्जुन स्पष्टता से अपने सम्भ्रम को मानता है और कृष्ण पर आरोप लगाता है कि आपकी मिश्रित बातों से ये हो रहा है।

अब आप सोंचिये, की अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर क्या दिया कृष्ण ने ? अथवा ये सोंचिये उस उत्तर का परिणाम क्या हुआ ? और जो हुआ, क्या वही सत्य है ? और अगर सत्य नहीं है, तो भगवान का उपदेश अथवा भगवान का कथन गलत है ? और अगर भगवान का कथन गलत नहीं है, तो फिर हम आध्यात्मिक बातों से लोगों को क्यों भ्रमित कर रहे हैं ??

ये आध्यात्म की बातें, सच्चे गुरु की देखरेख में जिज्ञासु शिष्य और गुरु के बिच का विषय है, अत: सर्वप्रथम कर्म प्रधान है, और कर्म से ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए कर्म तन-मन-धन से हमें सत्कर्म करना चाहिए !!

मंदिर जाना, देवपूजन करना, ब्राह्मण एवं संतों की सेवा करना, मनोकामना पूर्ति हेतु यज्ञ करना यही सर्वोत्तम कर्म है, इसे भूलकर हम कदापि सुखी नहीं रह सकते और जब इस शरीर से हम सुखी नहीं रहेंगें तो मोक्ष की साधना क्या खाक करेंगें !!

!! नमों नारायणाय !!

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