वेदों में क्या है ?
by Swami Shri Dhananjay ji Maharaj.
जय श्रीमन्नारायण,
{(ऋग्वेद, मंडल पाँच, सूक्त - ५१, ऋचा - १.)}
अग्ने सुतस्य पीतये विश्वैरुमेभिरा गहि ! देवेभिर्हव्यदातये !! १ !!
अर्थ:- हे अग्निदेव ! आप सोमरस का पान करने के लिए, सभी संरक्षक (विश्व कल्याण कारक) देवों के साथ हवन करने वाले, इस यजमान के पास आयें !!
ऋतधीतय आ गत सत्यधर्माणो अध्वरम् ! अग्नेः पिबत जिह्वया !! २ !!
अर्थ:- हे स्तुति योग्य देवों ! हे सत्य धारण करने वाले देवों ! आप सभी हमारे इस यज्ञ में आयें ! अग्नि कि ज्वाला रूपी जिह्वा से सोमरस अथवा घृतादी का पान करें !!
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये ! देवा अवन्त्वृभव: स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः !! १४ !!
अर्थ:- इस यज्ञ के फलस्वरूप सम्पूर्ण देवगण हमारे कल्याण के रक्षक हों ! सम्पूर्ण विश्व के नियामक और आश्रयदाता अग्निदेव हमारे कल्याण के रक्षक हों ! अतुलनीय तेजस्वी ऋभुगण हमारी रक्षा करते हुए, हम सभी के लिए कल्याणकारी हों ! रुद्रदेव हमें पापों से बचाकर, हमारा कल्याण करें !!
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति ! स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि !! १४ !!
अर्थ:- हे मित्र वरुण देवों ! आप हमारा कल्याण करें ! हे मार्गप्रदर्शिका और धनवती देवी ! आप हमारा कल्याण करें ! इन्द्र और अग्नि देव हमारा कल्याण करें ! हे अदिति देवि ! आप हमारा कल्याण करें !!
स्वस्ति पन्थामनु चरेम् सूर्याचंद्रमसाविव ! पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि !! १५ !!
अर्थ:- सूर्य और चन्द्रमा के समान हम भी, बाधारहित पंथों के अनुगामी हों ! निरंतर दान करते रहें, ज्ञान से युक्त रहें तथा परस्पर टकराव या हिंसा से रहित होकर सुखपूर्वक सबको साथ लेकर चलने वाले हों !!
अर्थात तात्पर्य यह है, कि इन वेद कि ऋचाओं से जो स्तुतियाँ कि गई है ! ये स्तुतियाँ देवताओं के निमित्त है ! और परमात्मा को ओंकार कहते हैं, उसका व्यापक अर्थों में नाम विष्णु कहा जाता है ! और विष्णु शब्द का शाब्दिक अर्थ व्यापक होता है, अर्थात जो कण-कण में व्याप्त है !!
इस सूत्र के अनुसार ये जितने नाम है, सभी परमात्मा के ही नाम हैं ! तो ये पुरा का पुरा वैदिक सनातन सिष्टम, इस प्रकार जेनरेट किया गया है, कि आप कर्मकाण्ड के माध्यम से अपनी मनोवान्छित कामना कि पूर्ति भी करें और परमात्मा कि भक्ति भी हो जाए !!
अर्थात भोग और मोक्ष दोनों, एक पंथ दो काज ! हर तरह कर जो सिद्धांत हैं, कहीं न कहीं से आपको अपने आप से जोड़ती है ! अत: आपको (गृहस्थों) को किसी तरह के अन्य किसी व्यर्थ के क्रिया कलापों में न पड़कर, सीधा-सीधा अपने कर्मों को ही, करना चाहिए !!
!! नमों नारायणाय !!
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