जीवन एक संघर्ष है. कैसे ? Life is a struggle. How ?
Swami Shri Dhananjay Ji Maharaj
जय श्रीमन्नारायण,
जीवन पशु रूप में हो या कीट पतंगों के रूप में, या फिर मानव के रूप में। जीवन एक यात्रा के समान है। क्योंकि प्रत्येक जीवन के बाद अंत भी निश्चित है। अतः जीव कुछ समय की यात्रा पर ही आता है, और चला जाता है। मानव सभी जीवों में एक सर्वोत्कृष्ट जीव है। .जो अपनी बुद्धि को किसी भी हद तक विकसित कर सकता है। अतः अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए मानव कि सोच कुछ इस प्रकार बनी, कि यदि पृथ्वी पर सिर्फ मानव जाति का ही राज हो जाये, तो उसे नित अन्य जीवों के डर से मुक्ति मिल जाएगी और मानव स्वतन्त्र रूप से निर्भय हो कर जीवन निर्वाह कर सकेगा। अपनी इस महत्वाकांक्षा के अनुरूप उसने धीरे धीरे सभी जीवों पर विजय भी प्राप्त कर ली । अर्थात सभी प्राणियों को अपने वश में करने कि तरकीब निकाल ली । अब वह सभी जीवों का उपयोग, मानव जाति के हित में करने लगा । तथा जो जीव उपयोगी नहीं था, उसे समाप्त कर दिया । इस प्रकार पूरी दुनिया पर मानव जाति का एकाधिकार हो गया ।।।।
परन्तु संघर्ष अब भी समाप्त नहीं हुआ, सिर्फ उसके संघर्ष की परिभाषाएं बदल गयीं । अब उसका संघर्ष अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाने के लिए शुरू हो गया । ज्यों ज्यों सुख सुविधाएँ बढती गयीं, इन्सान की महत्वाकांक्षाएं भी बढती गयीं । जिनका कोई अंत दिखाई नहीं देता । मानव उन्नति की प्रेरणा भी इसी महत्वाकांक्षा से मिलती है। अधिक से अधिक सुख सुविधाएँ जुटाने की लालसा, प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न करती है । और यह प्रतिस्पर्द्धा जहाँ इन्सान को कार्य में गुणवत्ता लाने को प्रेरित करती है, वहीँ कार्य आशानुरूप न हो पाने पर मानसिक अशांति भी पैदा करती है।।।
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तथा यही मानसिक तनाव अनेकों शारीरिक समस्याओं को उत्पन्न करता है। अब प्रतिस्पर्द्धा ने मानव के लिए जीवन संघर्ष का रूप ले लिया। इस प्रतिस्पर्द्धा में योग्यता के होते हुए भी सब लोग सफल नहीं हो पाते। परन्तु अप्रत्याशित सफलता प्राप्त व्यक्ति, अपनी संघर्ष की कहानी को ऐसे प्रस्तुत करता है, जैसे वह एक मात्र मेहनती, बुद्धिमान और सर्वाधिक संघर्ष शील व्यक्ति रहा हो। एकमात्र वही सबसे ज्यादा बुद्धिमान और परिश्रम करने वाला व्यक्ति है। जबकि ऐसे अनेकों व्यक्ति मिल जायेंगे, जिन्होंने उससे भी अधिक परिश्रम एवं संघर्ष किया। परन्तु सफलता के शिखर पर नहीं पहुँच पाए, नसीब ने उनका साथ नहीं दिया और संघर्ष की कहानी का अंत हो गया। क्या असफल इन्सान का संघर्ष एक संघर्ष नहीं था ?
हमारे शास्त्र कहते हैं, भाग्यं फलती सर्वदा। न विद्या न च पौरुषं।।।
उदाहरण स्वरूप देखें -दो देशों के युद्ध में अनेकों जवान शहीद हो जाते हैं और अनेक जवान घायल हो जाते हैं। परन्तु युद्ध जीतने के पश्चात् सिर्फ शेष बचे जवान ही जश्न मानते हैं। जबकि युद्ध जीतने में शहीद एवं घायल जवानो का भी योगदान कम नहीं था। इसी प्रकार प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे अनेक कुर्बानियां छिपी होती है।।।।
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किसी नयी खोज के लिए अनेक प्रयोग किये जाते हैं जिसमे अनेको जीवन समाप्त हो जाते हैं, तब कही कोई उपलब्धि हासिल होती है। परन्तु खोजकर्ता वही माना जाता है, जिसने उसमे सफलता प्राप्त की। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे अनेक असफल् व्यक्तियों का श्रम छिपा होता हैं। अनेक अन्य व्यक्ति एक सफल व्यक्ति की सफलता के लिए अप्रत्यक्ष रूप से योगदान कर रहे होते हैं।।।।
यह आम धारणा होती है, की जो व्यक्ति अधिक धनवान है, या अधिक धन अर्जित कर रहा है, उसको ही महिमा मंडित किये जाने का एक मात्र अधिकारी माना जाता है। भले ही उसने अनैतिक रूप से धन एकत्र किया हो, या अनैतिक कार्यों द्वारा धन अर्जित कर रहा हो। उसके संघर्ष को ही संघर्ष का नाम दिया जाता है, और अनेकों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत माना जाता है।।।
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यदि परिश्रम को ही महिमा मंडित करने का पात्र माना जाये, तो एक रिक्शा वाला मजदूर, या राज-मिस्त्री भी जीवन पर्यंत कठिन परिश्रम करते हैं। परन्तु फिर भी जीवन भर अभावो में जीने को मजबूर होते हैं। क्या उनके परिश्रम और परिवार को पालने के प्रति उनका समर्पण और संघर्ष कम होता है ? अथवा उन्हें उनके संघर्ष के लिए मान सम्मान का अधिकारी इसलिए नहीं समझा जाता, क्योंकि उन्हें जीवन की ऊँचाइयाँ नहीं मिल पायीं। या शायद उन्होंने सफलता के लिए अनैतिक मार्ग का सहारा नहीं लिया। अक्सर जिस जीवन संघर्ष की महिमा का बखान किया जाता है। वह सिर्फ अधिक धन अर्जन से सम्बंधित ही होता है। जबकि यह संघर्ष तो एक स्वाभाविक क्रिया है। कोई विशेष बात नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार अधिक सुविधा संपन्न होने के लिए संघर्ष करता ही है।।।।
और मुझे लगता है, कि जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष अपने शारीरिक विकारों से किया गया संघर्ष होता है। जिसमे अनेकों बार जीवन और मृत्यु के बीच अंतर समझना भी मुश्किल हो जाता है। शारीरिक विकलांगता एक ऐसे संघर्ष पूर्ण जीवन का नाम है, जिसमें साहसिक प्रेरणा ही उसके यातना पूर्ण जीवन को सहज बना सकती है। कुछ तो इतने साहसी होते है, जो परिवार और समाज के सहयोग से सामान्य जन से भी अधिक सफलता प्राप्त कर लेते है। और समाज के सामने साहसी एवं संघर्ष शील होने का उदाहरण प्रस्तुत करते है।।।।।
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दूसरे स्थान पर संघर्ष शील ऐसे व्यक्तियों को माना जा सकता है, जो अपने जीविकोपार्जन के लिए अनेकों प्रकार के जोखिम उठने को तत्पर रहते है। जैसे खदानों में कार्य करने वाले, केमिकल फैक्टरियों में काम करने वाले या इसी प्रकार प्रदुषण जनित योजनाओं पर काम करने वाले। जहाँ शारीरिक विकलांगता या मृत्यु का खतरा सदैव बना रहता है। कुछ ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती है, जहाँ इन्सान अप्राकृतिक स्थितियों में कार्य करता है। तथा जहाँ साँस लेने की भी समस्या हो। अथवा प्राकृतिक शारीरिक आवेगों या शारीरिक आवश्यकताओं से भी वंचित रहना पड़ता हो। जैसे भूख, प्यास, मूत्र, शौच इत्यादि। ऐसी परिस्थितियां अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोगों को भी आमंत्रित करती हैं। इन संघर्ष पूर्ण स्थितियों में रह कर भी यदि कोई उन्नति कर पाता है, तो क्या उसका संघर्ष एवं श्रम, सामान्य स्थितियों में श्रम करने वालों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए।।।।।
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अतः स्वस्थ्य परिस्थितयों में रहकर किया गया संघर्ष किसी का भी उत्थान अधिक कर सकता है। अनैतिक रूप से, या भ्रष्ट तरीके से कोई भी धनवान हो सकता है। परन्तु उसकी सफलता को अनुकरणीय नहीं माना जा सकता। बिना मानसिक या शारीरिक हानि से किये गए श्रम से हुई उन्नति एक सामान्य प्रक्रिया है। परन्तु यदि किसी व्यक्ति ने समाज के लिए, देश के लिए अथवा अपने कुटुंब के पीड़ितों के लिए श्रम किया है। उनके हित के लिए अपना सुख चैन गवांया या अपने प्राणों को खतरे में डाला है, तो उसका संघर्ष अवश्य ही अनुकरणीय है। ऐसा व्यक्ति प्रशंसा का पात्र माना जाना चाहिए। वास्तव में ऐसे व्यक्ति समाज के स्तम्भ होते हैं,सम्माननीय और स्मरणीय होते हैं।।।।
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निष्कर्ष के रूप में यह माना जा सकता है, कि अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज हित, देश हित के लिए संघर्षरत व्यक्ति जिससे सबकी उन्नति प्रशस्त होती है, पूर्ण रूप से सम्मान का पात्र है। मानव हित में किये गए कार्य से ही अपार आत्म संतोष प्राप्त हो सकता है, और अपने जीवन की सार्थकता भी सुनिश्चित हो सकती है।।।
।।।। नमों नारायण ।।।।
जय श्रीमन्नारायण,
जीवन पशु रूप में हो या कीट पतंगों के रूप में, या फिर मानव के रूप में। जीवन एक यात्रा के समान है। क्योंकि प्रत्येक जीवन के बाद अंत भी निश्चित है। अतः जीव कुछ समय की यात्रा पर ही आता है, और चला जाता है। मानव सभी जीवों में एक सर्वोत्कृष्ट जीव है। .जो अपनी बुद्धि को किसी भी हद तक विकसित कर सकता है। अतः अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए मानव कि सोच कुछ इस प्रकार बनी, कि यदि पृथ्वी पर सिर्फ मानव जाति का ही राज हो जाये, तो उसे नित अन्य जीवों के डर से मुक्ति मिल जाएगी और मानव स्वतन्त्र रूप से निर्भय हो कर जीवन निर्वाह कर सकेगा। अपनी इस महत्वाकांक्षा के अनुरूप उसने धीरे धीरे सभी जीवों पर विजय भी प्राप्त कर ली । अर्थात सभी प्राणियों को अपने वश में करने कि तरकीब निकाल ली । अब वह सभी जीवों का उपयोग, मानव जाति के हित में करने लगा । तथा जो जीव उपयोगी नहीं था, उसे समाप्त कर दिया । इस प्रकार पूरी दुनिया पर मानव जाति का एकाधिकार हो गया ।।।।
परन्तु संघर्ष अब भी समाप्त नहीं हुआ, सिर्फ उसके संघर्ष की परिभाषाएं बदल गयीं । अब उसका संघर्ष अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाने के लिए शुरू हो गया । ज्यों ज्यों सुख सुविधाएँ बढती गयीं, इन्सान की महत्वाकांक्षाएं भी बढती गयीं । जिनका कोई अंत दिखाई नहीं देता । मानव उन्नति की प्रेरणा भी इसी महत्वाकांक्षा से मिलती है। अधिक से अधिक सुख सुविधाएँ जुटाने की लालसा, प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न करती है । और यह प्रतिस्पर्द्धा जहाँ इन्सान को कार्य में गुणवत्ता लाने को प्रेरित करती है, वहीँ कार्य आशानुरूप न हो पाने पर मानसिक अशांति भी पैदा करती है।।।
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तथा यही मानसिक तनाव अनेकों शारीरिक समस्याओं को उत्पन्न करता है। अब प्रतिस्पर्द्धा ने मानव के लिए जीवन संघर्ष का रूप ले लिया। इस प्रतिस्पर्द्धा में योग्यता के होते हुए भी सब लोग सफल नहीं हो पाते। परन्तु अप्रत्याशित सफलता प्राप्त व्यक्ति, अपनी संघर्ष की कहानी को ऐसे प्रस्तुत करता है, जैसे वह एक मात्र मेहनती, बुद्धिमान और सर्वाधिक संघर्ष शील व्यक्ति रहा हो। एकमात्र वही सबसे ज्यादा बुद्धिमान और परिश्रम करने वाला व्यक्ति है। जबकि ऐसे अनेकों व्यक्ति मिल जायेंगे, जिन्होंने उससे भी अधिक परिश्रम एवं संघर्ष किया। परन्तु सफलता के शिखर पर नहीं पहुँच पाए, नसीब ने उनका साथ नहीं दिया और संघर्ष की कहानी का अंत हो गया। क्या असफल इन्सान का संघर्ष एक संघर्ष नहीं था ?
हमारे शास्त्र कहते हैं, भाग्यं फलती सर्वदा। न विद्या न च पौरुषं।।।
उदाहरण स्वरूप देखें -दो देशों के युद्ध में अनेकों जवान शहीद हो जाते हैं और अनेक जवान घायल हो जाते हैं। परन्तु युद्ध जीतने के पश्चात् सिर्फ शेष बचे जवान ही जश्न मानते हैं। जबकि युद्ध जीतने में शहीद एवं घायल जवानो का भी योगदान कम नहीं था। इसी प्रकार प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे अनेक कुर्बानियां छिपी होती है।।।।
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किसी नयी खोज के लिए अनेक प्रयोग किये जाते हैं जिसमे अनेको जीवन समाप्त हो जाते हैं, तब कही कोई उपलब्धि हासिल होती है। परन्तु खोजकर्ता वही माना जाता है, जिसने उसमे सफलता प्राप्त की। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे अनेक असफल् व्यक्तियों का श्रम छिपा होता हैं। अनेक अन्य व्यक्ति एक सफल व्यक्ति की सफलता के लिए अप्रत्यक्ष रूप से योगदान कर रहे होते हैं।।।।
यह आम धारणा होती है, की जो व्यक्ति अधिक धनवान है, या अधिक धन अर्जित कर रहा है, उसको ही महिमा मंडित किये जाने का एक मात्र अधिकारी माना जाता है। भले ही उसने अनैतिक रूप से धन एकत्र किया हो, या अनैतिक कार्यों द्वारा धन अर्जित कर रहा हो। उसके संघर्ष को ही संघर्ष का नाम दिया जाता है, और अनेकों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत माना जाता है।।।
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और मुझे लगता है, कि जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष अपने शारीरिक विकारों से किया गया संघर्ष होता है। जिसमे अनेकों बार जीवन और मृत्यु के बीच अंतर समझना भी मुश्किल हो जाता है। शारीरिक विकलांगता एक ऐसे संघर्ष पूर्ण जीवन का नाम है, जिसमें साहसिक प्रेरणा ही उसके यातना पूर्ण जीवन को सहज बना सकती है। कुछ तो इतने साहसी होते है, जो परिवार और समाज के सहयोग से सामान्य जन से भी अधिक सफलता प्राप्त कर लेते है। और समाज के सामने साहसी एवं संघर्ष शील होने का उदाहरण प्रस्तुत करते है।।।।।
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निष्कर्ष के रूप में यह माना जा सकता है, कि अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज हित, देश हित के लिए संघर्षरत व्यक्ति जिससे सबकी उन्नति प्रशस्त होती है, पूर्ण रूप से सम्मान का पात्र है। मानव हित में किये गए कार्य से ही अपार आत्म संतोष प्राप्त हो सकता है, और अपने जीवन की सार्थकता भी सुनिश्चित हो सकती है।।।
।।।। नमों नारायण ।।।।
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