Breaking News

Tritiya Skandha

श्रीमद्भागवत् महापुराण ।। स्कन्ध - तृतीय ।। अध्याय - 25.

शौनक उवाच:-
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता भगवानात्ममायया ।।
जातः स्वयमजः साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ।।१।।
अर्थ:- शौनक जी ने पूछा – आदरणीय सूतजी ! तत्वों की संख्या का निर्धारण करनेवाले भगवान कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिए अपनी माया से उत्पन्न हुए थे ।।१।।

न ह्यस्य वर्ष्मणः पुंसां वरिम्णः सर्वयोगिनाम् ।।
विश्रुतौ श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यन्ति मेऽसवः ।।२।।
यद्यद्विधत्ते भगवान्स्वच्छन्दात्मात्ममायया ।।
तानि मे श्रद्दधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ।।३।।
सूत उवाच:-
द्वैपायनसखस्त्वेवं मैत्रेयो भगवांस्तथा ।।
प्राहेदं विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदितः ।।४।।
मैत्रेय उवाच:-
पितरि प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।।
तस्मिन्बिन्दुसरेऽवात्सीद्भगवान्कपिलः किल ।।५।।
अर्थ:- श्री मैत्रेय जी ने कहा – आदरणीय विदुर जी ! पिता के वन में चले जाने पर भगवान कपिल जी अपनी माताजी का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे ।।५।।

तमासीनमकर्माणं तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।।
स्वसुतं देवहूत्याह धातुः संस्मरती वचः ।।६।।
देवहूतिरुवाच:-
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ।।७।।
अर्थ:- माता देवहुति बोलीं – भुमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय लालसा से मैं बहुत उब गयी हूँ और इनकी इच्छाएँ पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ।।७।।

तस्य त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ।।८।।
अर्थ:- अब आपकी कृपा से मेरी जन्म परम्परा समाप्त हो चुकी है । इसी से इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिए सुन्दर नेत्र रूप आप प्राप्त हुए हैं ।।८।।

य आद्यो भगवान्पुंसामीश्वरो वै भवान्किल ।।
लोकस्य तमसान्धस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः ।।९।।
अर्थ:- आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान आदिपुरुष हैं । तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिए नेत्ररूप सूर्य की भाँती उदित हुए हैं ।।९।।

अथ मे देव सम्मोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।।
योऽवग्रहोऽहं ममेतीत्येतस्मिन्योजितस्त्वया ।।१०।।
अर्थ:- हे देव ! इन देह-गेह आदि में जो मैं मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है । अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ।।१०।।

तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ।।११।।
अर्थ:- आप अपने भक्तों के संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान हैं । मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ । आप भागवत धर्म जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।।११।।

मैत्रेय उवाच:-
इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं निशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गतिर्बभाष ईषत्स्मितशोभिताननः ।।१२।।
अर्थ:- श्रीमैत्रेय जी कहते हैं – इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्षमार्ग में अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी । उसे सुनकर आत्मज्ञ पुरुषों की गति श्री कपिल जी उसकी मन ही मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुस्कान से सुशोभित मुखारविन्दों से इस प्रकार कहने लगे ।।१२।।

श्रीभगवानुवाच:-
योग आध्यात्मिकः पुंसां मतो निःश्रेयसाय मे ।।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ।।१३।।
अर्थ:- भगवान कपिल ने कहा – माता ! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है । जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ।।१३।।

तमिमं ते प्रवक्ष्यामि यमवोचं पुरानघे ।।
ऋषीणां श्रोतुकामानां योगं सर्वाङ्गनैपुणम् ।।१४।।
अर्थ:- साध्वि ! सब अंगों से संपन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने उनकी सुनने की इच्छा होनेपर वर्णन किया था । वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ।।
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ।।१५।।
अर्थ:- इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण इसका मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होनेपर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होनेपर वही मोक्ष का कारण बन जाता है ।।१५।।

अहं ममाभिमानोत्थैः कामलोभादिभिर्मलैः ।।
वीतं यदा मनः शुद्धमदुःखमसुखं समम् ।।१६।।
अर्थ:- जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है । उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है ।।१६।।

तदा पुरुष आत्मानं केवलं प्रकृतेः परम् ।।
निरन्तरं स्वयंज्योतिरणिमानमखण्डितम् ।।१७।।
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियुक्तेन चात्मना ।।
परिपश्यत्युदासीनं प्रकृतिं च हतौजसम् ।।१८।।
अर्थ:- तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त ह्रदय से आत्मा को प्रकृति से परे एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःख से रहित {शून्य}) देखता है । तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है ।।१७-१८।।
न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि ।।
सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ।।१९।।
अर्थ:- योगियों के लिए भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है ।।१९।।

प्रसङ्गमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ।।२०।।
अर्थ:- विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं । किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों – महापुरुषों के प्रति हो जाय तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ।।२०।।

तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ।।२१।।
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवाः ।।२२।।
मदाश्रयाः कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतसः ।।२३।।
अर्थ:- जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितु, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण तथा कीर्तन करते हैं और मुझमें ही अपने चित्त को लगाये रहते हैं – उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ।।

त एते साधवः साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिताः ।।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रार्थ्यः सङ्गदोषहरा हि ते ।।२४।।
अर्थ:- साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसंग परित्यागी महापुरुष ही साधू होते हैं । तुम्हें उन्हीं के संग की इच्छा करनी चाहिए । क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न दोषों को हर लेनेवाले होते हैं ।।२४।।

सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ।।२६।।
अर्थ:- सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रम का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा ह्रदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होता है ।।२५।।

भक्त्या पुमान्जातविराग ऐन्द्रियाद्दृष्टश्रुतान्मद्रचनानुचिन्तया ।।
चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योगयुक्तो यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गैः ।।२७।।
अर्थ:- फिर मेरी सृष्टि आदि की लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जानेपर मनुष्य सावधानता पूर्वक योग के भक्ति प्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिए यत्न करेगा ।।२६।।

असेवयायं प्रकृतेर्गुणानां ज्ञानेन वैराग्यविजृम्भितेन ।।
योगेन मय्यर्पितया च भक्त्या मां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ।।२८।।
अर्थ:- इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्य युक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है ।।२७।।
देवहूतिरुवाच:-
काचित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा ।।
यया पदं ते निर्वाणमञ्जसान्वाश्नवा अहम् ।।२८।।
अर्थ:- देवहुति ने कहा – भगवन् ! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है ? और मेरी जैसी अबलाओं के लिए कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूँ ? ।।२८।।

यो योगो भगवद्बाणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदितः ।।
कीदृशः कति चाङ्गानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ।।२९।।
अर्थ:- निर्वाणस्वरूप प्रभो ! जिसके द्वारा तत्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधनेवाले बाण के समान भगवान कि प्राप्ति करवाने वाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अंग हैं ? ।।२९।।

तदेतन्मे विजानीहि यथाहं मन्दधीर्हरे ।।
सुखं बुद्ध्येय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ।।३०।।
अर्थ:- हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ ।।३०।।

मैत्रेय उवाच:-
विदित्वार्थं कपिलो मातुरित्थं जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः ।।
तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति साङ्ख्यं प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ।।३१।।
अर्थ:- श्री मैत्रेय जी कहते हैं – विदुर जी ! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजी के ह्रदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्वों का निरूपण करनेवाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया । साथ ही भक्ति विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया ।।३१।।

श्रीभगवानुवाच:-
देवानां गुणलिङ्गानामानुश्रविककर्मणाम् ।।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ।।३२।।
अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ।।३३।।

अर्थ:- श्री भगवान ने कहा – माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान करवाने वाली इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ – दोनों प्रकार की) की जो सत्वमुर्ती श्रीहरी के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान की अहैतुकी भक्ति है । यह मुक्ति से भी बढ़कर है, क्योंकि जठरानल जिस प्रकार से खाए हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारों के भण्डार स्वरूप लिंग शरीर को तत्काल भस्म कर देती है ।।३२-३३।।



नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचिन्मत्पादसेवाभिरता मदीहाः ।।
येऽन्योन्यतो भागवताः प्रसज्य सभाजयन्ते मम पौरुषाणि ।।३४।।
अर्थ:- मेरी ही प्रशन्नता के लिए समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दुसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्य मोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ।।३४।।

पश्यन्ति ते मे रुचिराण्यम्ब सन्तः प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि ।।
रूपाणि दिव्यानि वरप्रदानि साकं वाचं स्पृहणीयां वदन्ति ।।३५।।
अर्थ:- माँ ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिब्य रूपों की झाँकी करते हैं और उनके साथ संभाषण भी करते हैं, जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं ।।३५।।

तैर्दर्शनीयावयवैरुदार विलासहासेक्षितवामसूक्तैः ।।
हृतात्मनो हृतप्राणांश्च भक्तिरनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते ।।३६।।
अर्थ:- दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हास-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती है । ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है ।।३६।।

अथो विभूतिं मम मायाविनस्तामैश्वर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।।
श्रियं भागवतीं वास्पृहयन्ति भद्रां परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ।।३७।।
अर्थ:- अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोग संपत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात् स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठ लोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम में पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती है ।।३७।।

न कर्हिचिन्मत्पराः शान्तरूपे नङ्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः ।।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ।।३८।।
अर्थ:- जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु सुहृद और इष्टदेव हूँ – वे मेरे ही आश्रय में रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुंचकर किसी प्रकार की इन दिब्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ।।३८।।

इमं लोकं तथैवामुमात्मानमुभयायिनम् ।।
आत्मानमनु ये चेह ये रायः पशवो गृहाः ।।३९।।
विसृज्य सर्वानन्यांश्च मामेवं विश्वतोमुखम् ।।
भजन्त्यनन्यया भक्त्या तान्मृत्योरतिपारये ।।४०।।
अर्थ:- माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जानेवाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्याय संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार से मेरा ही भजन करते हैं – उन्हें मैं मृत्युरूप संसार सागर से पार कर देता हूँ ।।३९-४०।।

नान्यत्र मद्भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ।।४१।।
अर्थ:- मैं साक्षात् भगवान हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों की आत्मा हूँ, मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मनुष्य मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं पा सकता ।।४१।।

मद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात् ।।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ।।४२।।
अर्थ:- मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से ही सूर्य तप रहा है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता है और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है ।।४२।।

ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्त्यकुतोभयम् ।।४३।।
अर्थ:- योगीजन ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिए मेरे निर्भय चरण कमलों का आश्रय लेते हैं ।।४३।।

एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसां निःश्रेयसोदयः ।।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ।।४४।।
अर्थ:- संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ी कल्याण प्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय ।।४४।।

No comments

Note: Only a member of this blog may post a comment.