Narad Neeti
नारद-नीति :-
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हजारों मूर्खों की अपेक्षा एक पण्डित श्रेष्ठ है ।।
नारद अपने समय के सर्वश्रेष्ठ नीति-विशारद रहे हैं । उनकी नीतियाँ सर्वस्वीकार्य है । वे आद्य नीति-आचार्य माने जाते हैं । महाभारत के सभापर्व में उनकी नीतियों का संकलन हुआ है ।।
"कच्चित्सहस्रं मूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम्।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुयान्निःश्रेयसं परम् ।।"
(नारद-नीति महाभारत, सभापर्व-अध्याय 5)
आचार्य नारद मुनि महाराज युधिष्ठिर से पूछते हैं कि क्या वह हजार मूर्खों की अपेक्षा एक पण्डित (ज्ञानी) को परिश्रय देता है या नहीं, क्योंकि अर्थ संकटों में पण्डित ही परम कल्याण कर सकता है ।।
मनु महाराज ने भी कहा है कि वेदों को जानने वाला द्विजोत्तम संन्यासी यदि अकेला हो तो भी वह जिस धर्म का निश्चय करें, उसे सर्वोत्तम धर्म मानना चाहिए । दूसरी तरफ संख्या में बहुमत के रूप में यदि हजारों मूर्ख मिलकर यदि किसी धर्म का निर्णय करें तो भी वह मान्य नहीं ।।
कारण यह है कि व्रतरहित, वेद-ज्ञान-अनभिज्ञ, केवल जन्ममात्र का अभिमान करने वाले, हजारों के इकट्ठे होने पर भी परिषत् (सभा) नहीं बन सकती ।।
आचार्य चाणक्य इस बात पर जोर देते हैं कि एक गुणी पुत्र हो तो वही श्रेष्ठ है, सैंकडों मूर्ख पुत्र नहीं । जैसे एक चन्द्रमा लोक के अन्धकार को हर लेता है, हजारों तारे ऐसा नहीं कर पाते हैः-
"एकोSपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्बरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः।।"
वे इसे और स्पष्ट करते हैं कि सहारा देने वाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ होता है, शोक-सन्ताप उत्पन्न करने हजारों पुत्रों से क्या लाभ ?
"किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ।।"
अभिप्राय यह है कि कोई एक ज्ञानी यदि कोई उपाय बता रहा हो तो उसे मान लेना चाहिए और दूसरी तरफ यदि हजार मूर्ख बहुमत (संख्या) के आधार पर कुछ कह रहे हो तो वह मानने योग्य नहीं ।।
जैसा कि आजकल देखा जाता है प्रजातन्त्र (लोकतन्त्र) में संख्या को महत्त्व दिया जाता है । इस कारण आज अव्यवस्था अधिक दिखाई देती है । विद्वान् आजकल उपेक्षित है, इस कारण संसार में अशान्ति, द्वेष और संकट है । हमें चाहिए कि वेदवेत्ता ब्राह्मण, ज्ञानी, पण्डित, विद्वान् का सम्मान करें और उनकी आज्ञाओं का पालन करें ।।
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हजारों मूर्खों की अपेक्षा एक पण्डित श्रेष्ठ है ।।
नारद अपने समय के सर्वश्रेष्ठ नीति-विशारद रहे हैं । उनकी नीतियाँ सर्वस्वीकार्य है । वे आद्य नीति-आचार्य माने जाते हैं । महाभारत के सभापर्व में उनकी नीतियों का संकलन हुआ है ।।
"कच्चित्सहस्रं मूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम्।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुयान्निःश्रेयसं परम् ।।"
(नारद-नीति महाभारत, सभापर्व-अध्याय 5)
आचार्य नारद मुनि महाराज युधिष्ठिर से पूछते हैं कि क्या वह हजार मूर्खों की अपेक्षा एक पण्डित (ज्ञानी) को परिश्रय देता है या नहीं, क्योंकि अर्थ संकटों में पण्डित ही परम कल्याण कर सकता है ।।
मनु महाराज ने भी कहा है कि वेदों को जानने वाला द्विजोत्तम संन्यासी यदि अकेला हो तो भी वह जिस धर्म का निश्चय करें, उसे सर्वोत्तम धर्म मानना चाहिए । दूसरी तरफ संख्या में बहुमत के रूप में यदि हजारों मूर्ख मिलकर यदि किसी धर्म का निर्णय करें तो भी वह मान्य नहीं ।।
कारण यह है कि व्रतरहित, वेद-ज्ञान-अनभिज्ञ, केवल जन्ममात्र का अभिमान करने वाले, हजारों के इकट्ठे होने पर भी परिषत् (सभा) नहीं बन सकती ।।
आचार्य चाणक्य इस बात पर जोर देते हैं कि एक गुणी पुत्र हो तो वही श्रेष्ठ है, सैंकडों मूर्ख पुत्र नहीं । जैसे एक चन्द्रमा लोक के अन्धकार को हर लेता है, हजारों तारे ऐसा नहीं कर पाते हैः-
"एकोSपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्बरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः।।"
वे इसे और स्पष्ट करते हैं कि सहारा देने वाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ होता है, शोक-सन्ताप उत्पन्न करने हजारों पुत्रों से क्या लाभ ?
"किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ।।"
अभिप्राय यह है कि कोई एक ज्ञानी यदि कोई उपाय बता रहा हो तो उसे मान लेना चाहिए और दूसरी तरफ यदि हजार मूर्ख बहुमत (संख्या) के आधार पर कुछ कह रहे हो तो वह मानने योग्य नहीं ।।
जैसा कि आजकल देखा जाता है प्रजातन्त्र (लोकतन्त्र) में संख्या को महत्त्व दिया जाता है । इस कारण आज अव्यवस्था अधिक दिखाई देती है । विद्वान् आजकल उपेक्षित है, इस कारण संसार में अशान्ति, द्वेष और संकट है । हमें चाहिए कि वेदवेत्ता ब्राह्मण, ज्ञानी, पण्डित, विद्वान् का सम्मान करें और उनकी आज्ञाओं का पालन करें ।।
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