जीवितयाथार्थ्यम् अयोध्या काण्ड ।। अध्याय १०५ ।। (वाल्मीकीय रामायणे) Sansthanam.
जीवितयाथार्थ्यम् अयोध्या काण्ड ।। अध्याय १०५ ।। (वाल्मीकीय रामायणे) Sansthanam. Silvassa.
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवतम् ॥ १६॥
अर्थ:- समस्त सङ्ग्रहों का अन्त विनाश है । लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है । संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है ।।
यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद्भयम् ।
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्भयम् ॥ १७॥
अर्थ:- जैसे पके हुए फलों को पतन के सिवा और किसी से भय नहीं है, उसी प्रकार उत्पन्न हुए मनुष्य को मृत्यु के सिवा और किसी से भय नहीं है ।।
यथाऽऽगारं दृढस्तूर्णं जीर्णं भूत्वोपसीदति ।
तथावसीदन्ति नरा जरामृत्युवशङ्गताः ॥ १८॥
अर्थ:- जैसे सुदृढ खम्बेवाला मकान भी पुराना होने पर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जरा और मृत्यु के वश में पडकर नष्ट हो जाते हैं ।।
अत्येति रजनी या तु सा न प्रतिनिवर्तते ।
यात्येव यमुना पूर्णं समुद्रमुदकार्णवम् ॥ १९॥
अर्थ:- जो रात बीत जाती है वह लौटकर फिर नही आती है । जैसे यमुना जलसे भरे हुए समुद्र की ओर जाती है, उधर से लौटती नहीं ।।
अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषां प्राणिनामिह ।
आयूंषि क्षपयन्त्याशु ग्रीष्मे जलमिवांशवः ॥ २०॥
अर्थ:- दिन-रात लगातार बीत रहे हैं, और इस संसारमें सभी प्राणियोङ्की आयुका तीव्र गतिसे नाश कर रहे हैं । ठीक वैसे ही जैसे सूर्यकी किरणें ग्रीष्म ऋतुमें जलको शीघ्रतापूर्वक सोखती रहती हैं ।।
आत्मानमनुशोच त्वं किमन्यमनुशोचसि ।
आयुस्तु हीयते यस्य स्थितस्यास्य गतस्य च ॥ २१॥
अर्थ:- तुम अपने ही लिये चिन्ता करो, दूसरेके लिये क्यों बार बार शोक करते हो । कोई इस लोकमें स्थित हो या अन्यत्र गया हो, जिस किसीकी भी आयु तो निरन्तर क्षीण ही हो रही है ।।
सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति ।
गत्वा सुदीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते ॥ २२॥
अर्थ:- मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और बहुत बडे मार्गकी यात्रामें भी साथ ही जाकर वह मनुष्यके साथ ही लौटती है ।।
गात्रेषु वलयः प्राप्ताः श्वेताश्चैव शिरोरुहाः ।
जरया पुरुषो जीर्णः किं हि कृत्वा प्रभावयेत् ॥ २३॥
अर्थ:- शरीरमें झुर्रियाँ पड गयीं, सिरके बाल सफेद हो गये । फिर जरावस्थासे जीर्ण हुआ मनुष्य कौन-सा उपाय करके मृत्युसे बचनेके लिये अपना प्रभाव प्रकट कर सकता है ?
नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमितेऽहनि ।
आत्मनो नावभुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम् ॥ २४॥
अर्थ:- लोग सूर्योदय होनेपर प्रसन्न होते हैं, सुर्यास्त होनेपर भी खुश होते हैं । किन्तु यह नहीं जानते कि प्रतिदिन अपने जीवनका नाश हो रहा है ।।
हृष्यन्त्यृतुमुखं दृष्ट्वा नवं नवमिवागतम् ।
ऋतूनां परिवर्तेन प्राणिनां प्राणसङ्क्षयः ॥ २५॥
अर्थ:- किसी ऋतुका प्रारम्भ देखकर मानो वह नयी नयी आयी हो (पहले कभी आयी ही न हो) ऐसा समझकर लोग हर्षसे खिल उठते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि इन ऋतुओङ्के परिवर्तनसे प्राणियोङ्के प्राणोङ्का (आयुका) क्रमशः क्षय हो रहा है ।।
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे ।
समेत्य तु व्यपेयातां कालमासाद्य कञ्चन ॥ २६॥
एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च ।
समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवोह्येषां विनाभवः ॥ २७॥
अर्थ:- जैसे महासागरमें बहते हुए दो काठ कभी एक दूसरेसे मिल जाते हैं और कुछ कालके बाद अलग भी हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, और धन भी मिलकर बिछुड जाते हैं; क्योङ्कि इनका वियोग अवश्यम्भावी है ।।
नात्र कश्चिद्यथाभावं प्राणी समतिवर्तते ।
तेन तस्मिन् न सामर्थ्यं प्रेतस्यास्त्यनुशोचतः ॥ २८॥
अर्थ:- इस संसारमें कोई भी प्राणी यथासमय प्राप्त होनेवाले जन्म\-मरणका उल्लङ्घन नहीं कर सकता । इसलिये जो किसी मरे हुए व्यक्तिके लिये बारम्बार शोक करता है, उसमें भी यह सामर्थ्य नहिं है कि वह अपने ही मृत्युको टाल सके ।।
यथा हि सार्थं गच्छन्तं ब्रूयात् कश्चित् पथि स्थितः ।
अहमप्यागमिष्यामि पृष्ठतो भवतामिति ॥ २९॥
एवं पूर्वैर्गतो मार्गः पितृपैतामहैर्ध्रुवः ।
तमापन्नः कथं शोचेत् यस्य नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ३०॥
अर्थ:- जैसे आगे जाते हुए यात्रियों अथवा व्यापारियोङ्के समुदायसे रास्तेमें खडा हुआ पथिक यों कहे कि मैं भी आप लोगों के पीछे-पीछे जाऊँगा और तदनुसार वह उनके पीछे-पीछे जाय, उसी प्रकार हमारे पूर्वज पिता-पितामह आदि जिस मार्गसे गये हैं जिसपर जाना अनिवार्य है तथा जिससे बचनेका कोई उपाय नहीं है, उसी मार्गपर स्थित हुआ मनुष्य किसी औरके लिये शोक कैसे करे ?
वयसः पतमानस्य स्रोतसो वानिवर्तिनः ।
आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजाः स्मृताः ॥ ३१॥
अर्थ:- जैसे नदियों का प्रवाह पीछे नहिं लौटता, उसी प्रकार दिन-दिन ढलती हुई अवस्था फिर नहीं लौटती है । उसका क्रमशः नाश हो रहा है, यह सोचकर आत्माको कल्याणके साधनभूत धर्ममें लगावे; क्योङ्कि सभी लोग अपना कल्याण चाहते हैं ।।
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवतम् ॥ १६॥
अर्थ:- समस्त सङ्ग्रहों का अन्त विनाश है । लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है । संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है ।।
यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद्भयम् ।
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्भयम् ॥ १७॥
अर्थ:- जैसे पके हुए फलों को पतन के सिवा और किसी से भय नहीं है, उसी प्रकार उत्पन्न हुए मनुष्य को मृत्यु के सिवा और किसी से भय नहीं है ।।
यथाऽऽगारं दृढस्तूर्णं जीर्णं भूत्वोपसीदति ।
तथावसीदन्ति नरा जरामृत्युवशङ्गताः ॥ १८॥
अर्थ:- जैसे सुदृढ खम्बेवाला मकान भी पुराना होने पर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जरा और मृत्यु के वश में पडकर नष्ट हो जाते हैं ।।
अत्येति रजनी या तु सा न प्रतिनिवर्तते ।
यात्येव यमुना पूर्णं समुद्रमुदकार्णवम् ॥ १९॥
अर्थ:- जो रात बीत जाती है वह लौटकर फिर नही आती है । जैसे यमुना जलसे भरे हुए समुद्र की ओर जाती है, उधर से लौटती नहीं ।।
अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषां प्राणिनामिह ।
आयूंषि क्षपयन्त्याशु ग्रीष्मे जलमिवांशवः ॥ २०॥
अर्थ:- दिन-रात लगातार बीत रहे हैं, और इस संसारमें सभी प्राणियोङ्की आयुका तीव्र गतिसे नाश कर रहे हैं । ठीक वैसे ही जैसे सूर्यकी किरणें ग्रीष्म ऋतुमें जलको शीघ्रतापूर्वक सोखती रहती हैं ।।
आत्मानमनुशोच त्वं किमन्यमनुशोचसि ।
आयुस्तु हीयते यस्य स्थितस्यास्य गतस्य च ॥ २१॥
अर्थ:- तुम अपने ही लिये चिन्ता करो, दूसरेके लिये क्यों बार बार शोक करते हो । कोई इस लोकमें स्थित हो या अन्यत्र गया हो, जिस किसीकी भी आयु तो निरन्तर क्षीण ही हो रही है ।।
सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति ।
गत्वा सुदीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते ॥ २२॥
अर्थ:- मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और बहुत बडे मार्गकी यात्रामें भी साथ ही जाकर वह मनुष्यके साथ ही लौटती है ।।
गात्रेषु वलयः प्राप्ताः श्वेताश्चैव शिरोरुहाः ।
जरया पुरुषो जीर्णः किं हि कृत्वा प्रभावयेत् ॥ २३॥
अर्थ:- शरीरमें झुर्रियाँ पड गयीं, सिरके बाल सफेद हो गये । फिर जरावस्थासे जीर्ण हुआ मनुष्य कौन-सा उपाय करके मृत्युसे बचनेके लिये अपना प्रभाव प्रकट कर सकता है ?
नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमितेऽहनि ।
आत्मनो नावभुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम् ॥ २४॥
अर्थ:- लोग सूर्योदय होनेपर प्रसन्न होते हैं, सुर्यास्त होनेपर भी खुश होते हैं । किन्तु यह नहीं जानते कि प्रतिदिन अपने जीवनका नाश हो रहा है ।।
हृष्यन्त्यृतुमुखं दृष्ट्वा नवं नवमिवागतम् ।
ऋतूनां परिवर्तेन प्राणिनां प्राणसङ्क्षयः ॥ २५॥
अर्थ:- किसी ऋतुका प्रारम्भ देखकर मानो वह नयी नयी आयी हो (पहले कभी आयी ही न हो) ऐसा समझकर लोग हर्षसे खिल उठते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि इन ऋतुओङ्के परिवर्तनसे प्राणियोङ्के प्राणोङ्का (आयुका) क्रमशः क्षय हो रहा है ।।
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे ।
समेत्य तु व्यपेयातां कालमासाद्य कञ्चन ॥ २६॥
एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च ।
समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवोह्येषां विनाभवः ॥ २७॥
अर्थ:- जैसे महासागरमें बहते हुए दो काठ कभी एक दूसरेसे मिल जाते हैं और कुछ कालके बाद अलग भी हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, और धन भी मिलकर बिछुड जाते हैं; क्योङ्कि इनका वियोग अवश्यम्भावी है ।।
नात्र कश्चिद्यथाभावं प्राणी समतिवर्तते ।
तेन तस्मिन् न सामर्थ्यं प्रेतस्यास्त्यनुशोचतः ॥ २८॥
अर्थ:- इस संसारमें कोई भी प्राणी यथासमय प्राप्त होनेवाले जन्म\-मरणका उल्लङ्घन नहीं कर सकता । इसलिये जो किसी मरे हुए व्यक्तिके लिये बारम्बार शोक करता है, उसमें भी यह सामर्थ्य नहिं है कि वह अपने ही मृत्युको टाल सके ।।
यथा हि सार्थं गच्छन्तं ब्रूयात् कश्चित् पथि स्थितः ।
अहमप्यागमिष्यामि पृष्ठतो भवतामिति ॥ २९॥
एवं पूर्वैर्गतो मार्गः पितृपैतामहैर्ध्रुवः ।
तमापन्नः कथं शोचेत् यस्य नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ३०॥
अर्थ:- जैसे आगे जाते हुए यात्रियों अथवा व्यापारियोङ्के समुदायसे रास्तेमें खडा हुआ पथिक यों कहे कि मैं भी आप लोगों के पीछे-पीछे जाऊँगा और तदनुसार वह उनके पीछे-पीछे जाय, उसी प्रकार हमारे पूर्वज पिता-पितामह आदि जिस मार्गसे गये हैं जिसपर जाना अनिवार्य है तथा जिससे बचनेका कोई उपाय नहीं है, उसी मार्गपर स्थित हुआ मनुष्य किसी औरके लिये शोक कैसे करे ?
वयसः पतमानस्य स्रोतसो वानिवर्तिनः ।
आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजाः स्मृताः ॥ ३१॥
अर्थ:- जैसे नदियों का प्रवाह पीछे नहिं लौटता, उसी प्रकार दिन-दिन ढलती हुई अवस्था फिर नहीं लौटती है । उसका क्रमशः नाश हो रहा है, यह सोचकर आत्माको कल्याणके साधनभूत धर्ममें लगावे; क्योङ्कि सभी लोग अपना कल्याण चाहते हैं ।।
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