Shastra Vachan. शास्त्र वचन ।। Sansthanam. Silvassa.
Shastra Vachan. शास्त्र वचन ।। Sansthanam. Silvassa.
महता पुण्ययोगेन मानुषं जन्म लभ्यते ।।
तत्प्राप्य न कृतो धर्मः कीदृशं हि मयाकृतम् ।। (गरुड पुराण)
अर्थ:- अत्यधिक पुण्यसे मनुष्यका यह जन्म प्राप्त होता है । यह प्राप्त करनेपर भी मैंने धर्म अनुसार आचरण नहीं किया यह ज्ञान होनेपर वह व्यक्ति दुखी होता है कि मात्र शरीर छोडनेसे वह जन्म मृत्युके चक्रसे नहीं निकल सकता है ।।
मनःप्रीतिकरः स्वर्गः नरकस्तिद्विपर्यायः ।।
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ।। (विष्णुपुराण)
अर्थ:- जिससे प्रसन्नता मिले वह स्वर्ग है और इसके विपरीत नरक है । जब सत्कर्म करते है मन प्रसन्न होता है और जब किसीको दुखी करते हैं तो दु:ख होता है अतः स्वर्ग और नर्क हमारे कर्मों पर ही आश्रित होता है ।।
उदारस्य तॄणं वित्तं शूरस्य मरणं तॄणं ।।
विरक्तस्य तॄणं भार्या निस्पॄहस्य तॄणं जगत् ।।
अर्थ:- उदार हृदयवालों के लिए धन तृण (घास) के समान महत्वहीन है । शूरवीरों के लिए मृत्यु का कोई मोल नहीं । विरक्तों के लिए पत्नी-कुटुंब इत्यादि महत्वहीन है और निस्पृह व्यक्ति (जो अनासक्त है) और जिसके मन में भोग के कोई विचार नहीं होते उसके लिए यह संसार महत्वहीन है ।।
विद्वत्वं च नॄपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।
अर्थ : विद्वत्व और नृपत्वकी कभी तुलना नहीं की जा सकती है | राजा अपने देशमें पूजा जाता है और विद्वान अपनी विद्वता रूपी गुणके कारण, सर्वत्र पूजा जाता है ।।
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत् ।।
उष्णो दहति चांगार: शीत:कॄष्णायते करम् ।।
अर्थ:- दुर्जनों के संग प्रीति और मित्रता दोनों ही नहीं करना चाहिए । जैसे कोयला यदि उष्ण हो तो हमें जला सकता है और ठंडा हो तो उसके स्पर्श मात्र से कालिख लग सकती है । अर्थात दुर्जनों के संपर्क मात्र से हमारा अहित होना निश्चित होता है । अतः दुर्जनों के संगत से बचना चाहिए ।।
महता पुण्ययोगेन मानुषं जन्म लभ्यते ।।
तत्प्राप्य न कृतो धर्मः कीदृशं हि मयाकृतम् ।। (गरुड पुराण)
अर्थ:- अत्यधिक पुण्यसे मनुष्यका यह जन्म प्राप्त होता है । यह प्राप्त करनेपर भी मैंने धर्म अनुसार आचरण नहीं किया यह ज्ञान होनेपर वह व्यक्ति दुखी होता है कि मात्र शरीर छोडनेसे वह जन्म मृत्युके चक्रसे नहीं निकल सकता है ।।
मनःप्रीतिकरः स्वर्गः नरकस्तिद्विपर्यायः ।।
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ।। (विष्णुपुराण)
अर्थ:- जिससे प्रसन्नता मिले वह स्वर्ग है और इसके विपरीत नरक है । जब सत्कर्म करते है मन प्रसन्न होता है और जब किसीको दुखी करते हैं तो दु:ख होता है अतः स्वर्ग और नर्क हमारे कर्मों पर ही आश्रित होता है ।।
उदारस्य तॄणं वित्तं शूरस्य मरणं तॄणं ।।
विरक्तस्य तॄणं भार्या निस्पॄहस्य तॄणं जगत् ।।
अर्थ:- उदार हृदयवालों के लिए धन तृण (घास) के समान महत्वहीन है । शूरवीरों के लिए मृत्यु का कोई मोल नहीं । विरक्तों के लिए पत्नी-कुटुंब इत्यादि महत्वहीन है और निस्पृह व्यक्ति (जो अनासक्त है) और जिसके मन में भोग के कोई विचार नहीं होते उसके लिए यह संसार महत्वहीन है ।।
विद्वत्वं च नॄपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।
अर्थ : विद्वत्व और नृपत्वकी कभी तुलना नहीं की जा सकती है | राजा अपने देशमें पूजा जाता है और विद्वान अपनी विद्वता रूपी गुणके कारण, सर्वत्र पूजा जाता है ।।
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत् ।।
उष्णो दहति चांगार: शीत:कॄष्णायते करम् ।।
अर्थ:- दुर्जनों के संग प्रीति और मित्रता दोनों ही नहीं करना चाहिए । जैसे कोयला यदि उष्ण हो तो हमें जला सकता है और ठंडा हो तो उसके स्पर्श मात्र से कालिख लग सकती है । अर्थात दुर्जनों के संपर्क मात्र से हमारा अहित होना निश्चित होता है । अतः दुर्जनों के संगत से बचना चाहिए ।।
No comments
Note: Only a member of this blog may post a comment.